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________________ अष्टपाहुड जानकर उसमें स्थिरता भाव करे, परद्रव्यों से रागद्वेष नहीं करे वही निश्चय चारित्र है इसलिए पूर्वोक्त महाव्रतादिक की प्रवृत्ति करके उस ज्ञानस्वरूप आत्मा में लीन होना, इसप्रकार उपदेश है ।।३८।। आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार ज्ञान से ऐसे जानता है, वह सम्यग्ज्ञानी है - जीवाजीवविभत्ती जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी। रायादिदोसरहिओ जिणसासणे मोक्खमग्गोत्ति ।।३९।। जीवाजीवविभक्तिं यःजानाति स भवेत् सज्ज्ञानः। रागादिदोषरहित: जिनशासने मोक्षमार्ग इति ।।३९।। अर्थ - जो पुरुष जीव और अजीव का भेद जानता है वह सम्यग्ज्ञानी होता है और रागादि दोषों से रहित होता है, इसप्रकार जिनशासन में मोक्षमार्ग है। भावार्थ - जो जीव-अजीव पदार्थ का स्वरूप भेदरूप जानकर स्व-पर का भेद जानता है, वह सम्यग्ज्ञानी होता है और परद्रव्यों से रागद्वेष छोड़ने से ज्ञान में स्थिरता होने पर निश्चय सम्यकचारित्र होता है, वही जिनमत में मोक्षमार्ग का स्वरूप कहा है। अन्य मतवालों ने अनेक प्रकार से कल्पना करके कहा है, वह मोक्षमार्ग नहीं है ।।३९।। आगे इसप्रकार मोक्षमार्ग को जानकर श्रद्धा सहित इसमें प्रवृत्ति करता है, वह शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है, इसप्रकार कहते हैं - दंसणणाणचरित्तं तिण्णि वि जाणेह परमसद्धाए। जं जाणिऊण जोई अइरेण लहंति णिव्वाणं ।।४०।। दर्शनज्ञानचरित्रं त्रीण्यपिजानीहि परमश्रद्धया। यत् ज्ञात्वा योगिन: अचिरेण लभंते निर्वाणम् ।।४०।। अर्थ – हे भव्य ! तू दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों को परमश्रद्धा से जान, जिसको जानकर १. पाठान्तरः - मोक्खमगुत्ति । जीव और अजीव का जो भेद जाने ज्ञानि वह । रागादि से हो रहित शिवमग यही है जिनमार्ग में ।।३९ ।। तू जान श्रद्धाभाव से उन चरण-दर्शन-ज्ञान को। अतिशीघ्र पाते मुक्ति योगी अरे जिनको जानकर ।।४०।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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