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________________ ८२ महिलालोकनपूर्वरतिस्मरणसंसक्तवसतिविकथाभिः । पौष्टिकरसैः विरतः भावना: पंचापि तुर्ये ।। ३५ ।। अर्थ - स्त्रियों का अवलोकन अर्थात् रागभावसहित देखना, पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों को स्मरण करना, स्त्रियों से संसक्त वस्तिका में रहना, स्त्रियों की कथा करना, पौष्टिक रसों का सेवन करना, इन पाँचों से विकार उत्पन्न होता है, इसलिए इनसे विरक्त रहना, ये पाँच ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना हैं । अष्टपाहुड भावार्थ - कामविकार के निमित्तों से ब्रह्मचर्यव्रत भंग होता है, इसलिए स्त्रियों को रागभाव से देखना इत्यादि निमित्त कहे, इनसे विरक्त रहना, प्रसंग नहीं करना, इससे ब्रह्मचर्य महाव्रत दृढ़ रहता है ।। ३५ ।। आगे पाँच अपरिग्रह महाव्रत की भावना कहते हैं अपरिग्गह समणुण्णेसु सद्दपरिसरसरूवगंधेसु । रायोसाई परिहारो भावणा होंति ।। ३६।। अपरिग्रहे समनोज्ञेषु शब्दस्पर्शरसरूपगंधेषु । रागद्वेषादीनां परिहारो भावना: भवन्ति ।। ३६ ।। अर्थ - शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध ये पाँच इन्द्रियों के विषय समनोज्ञ अर्थात् मन को अच्छे लगनेवाले और अमनोज्ञ अर्थात् मन को बुरे लगनेवाले हों तो इन दोनों में ही राग-द्वेष आदि न करना परिग्रहत्याग व्रत की ये पाँच भावना हैं । भावार्थ – पाँच इन्द्रियों के विषय स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द ये हैं, इनमें इष्ट-अनिष्ट बुद्धिरूप राग-द्वेष नहीं करे, तब अपरिग्रहव्रत दृढ़ रहता है, इसीलिए ये पाँच भावना अपरिग्रह महाव्रत की कही गई हैं ।। ३६ ।। आगे पाँच समितियों को कहते हैं १. पाठान्तर संजमसोहिणिमित्ते । इन्द्रियों के विषय चाहे मनोज्ञ हों अमनोज्ञ हों । नहीं करना राग - रुस ये अपरिग्रह व्रत भावना | | ३६ ॥ ईर्या भाषा एषणा आदाननिक्षेपण सही । एवं प्रतिष्ठापना संयमशोधमय समिती कही ।। ३७ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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