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________________ ६८ वात्सल्यं विनयेन च अनुकंपया सुदान दक्षया । मार्गगुणशंसनया उपगूहनं रक्षणेन च ।।११।। एतैः लक्षणैः च लक्ष्यते आर्जवैः भावैः । जीव: आराधयन् जिनसम्यक्त्वं अमोहेन ।।१२।। अष्टपाहुड अर्थ - जिनदेव की श्रद्धा सम्यक्त्व को मोह अर्थात् मिथ्यात्व रहित आराधना करता हुआ जीव इन लक्षणों से अर्थात् चिह्नों से पहिचाना जाता है - प्रथम तो धर्मात्मा पुरुषों से जिसके वात्सल्यभाव हो जैसे तत्काल की प्रसूतिवान गाय के बच्चे से प्रीति होती है वैसी धर्मात्मा से प्रीति हो, एक तो यह चिह्न है । सम्यक्त्वादि गुणों से अधिक हो उसका विनय सत्कारादिक जिसके अधिक हो, ऐसा विनय, एक यह चिह्न है, दुखी प्राणी देखकर करुणा भाव स्वरूप अनुकम्पा जिसके हो, यह एक चिह्न है, अनुकम्पा कैसी हो ? भले प्रकार दान से योग्य हो । निर्ग्रन्थस्वरूप मोक्षमार्ग की प्रशंसा सहित हो, एक यह चिह्न है, जो मार्ग की प्रशंसा न करता तो जानो कि इसके मार्ग की दृढ श्रद्धा नहीं है । धर्मात्मा पुरुषों के कर्म के उदय से (उदयवश ) दोष उत्पन्न हो उसको विख्यात न करे इसप्रकार उपगूहन भाव हो, एक यह चिह्न है । धर्मात्मा को मार्ग से चिगता जानकर उसकी स्थिरता करे ऐसा रक्षण नाम का चिह्न है; इसको स्थितिकरण भी कहते हैं । इन सब चिह्नों को, सत्यार्थ करनेवाला एक आर्जवभाव है, क्योंकि निष्कपट परिणाम से सब चिह्न प्रगट होते हैं, सत्यार्थ होते हैं, इतने लक्षणों से सम्यग्दृष्टि को जान सकते हैं। भावार्थ - सम्यक्त्वभाव मिथ्यात्व कर्म के अभाव से जीवों का निजभाव प्रगट होता है सो वह भाव तो सूक्ष्म है, छद्मस्थ के ज्ञानगोचर नहीं है और उसके बाह्य चिह्न सम्यग्दृष्टि के प्रगट होते हैं, उनसे सम्यक्त्व हुआ जाना जाता है। वात्सल्य आदि भाव कहे वे आपके तो अपने अनुभवगोचर होते हैं और अन्य के उसकी वचन काय की क्रिया से जाने जाते हैं, उनकी परीक्षा जैसे अपने क्रियाविशेष से होती है, वैसे अन्य की भी क्रियाविशेष से परीक्षा होती है, इसप्रकार व्यवहार है, यदि ऐसा न हो तो सम्यक्त्व व्यवहार मार्ग का लोप हो इसलिए व्यवहारी प्राणी को व्यवहार का ही आश्रय कहा है, परमार्थ को सर्वज्ञ जानता है । । ११-१२ ॥ आगे कहते हैं कि जो ऐसे कारण सहित हो तो सम्यक्त्व छोड़ता है उच्छाहभावणासंपसंससेवा कुदंसणे सद्धा । अण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणसम्मं ।। १३ ।। अज्ञानमोहित मार्ग की शंसा करे उत्साह से । श्रद्धा कुदर्शन में रहे तो बमे सम्यक्भाव को ।। १३ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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