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पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह दुठ अनंग मातंग भंगकर, है प्रबलंगहरी । जा पदभक्ति भक्तजनदुख-दावानल मेघझरी।।१।।ध्यान. ।। नवल धवल पल सोहै कलमें, क्षुधतृषव्याधि टरी। हलत न पलक अलक नख बढ़त न गति नभमाहि करी।।२।।ध्यान. ।। जा विन शरन मरन जर धरधर, महा असात भरी। 'दौल' तास पद दास होत है, वास मुक्तिनगरी।।३ ।।ध्यान. ।। १९. भविन-सरोरुहसूर भूरिगुनपूरित अरहता
भविन-सरोरूहसूर भूरिगुनपूरित अरहता। दुरित दोष मोष पथघोषक, करन कर्मअन्ता ।।भविन. ।। दर्शबोधौं युगपतलखि जाने जु भावऽनन्ता। विगताकुल जुतसुख अनन्त अन्त शक्तिवन्ता।।१।।भविन. ।। जा तनजोत उदोतथकी रवि, शशिदुति लाजंता । तेजथोक अवलोक लगत है, फोक सचीकन्ता।।२।।भविन. ।। जास अनूप रूपको निरखत, हरखत हैं सन्ता। जाकी धुनि सुनि मुनि निजगुनमुन, पर-गर उगलता।।३ ।।भविन. ।। 'दौल' तौल विन जस तस वरनत, सुरगुरु अकुलंता। नामाक्षर सुन कान स्वानसे, रांक नाक गंता।।४ । भविन. ।। २०. प्रभु थारी आज महिमा जानी प्रभु थारी आज महिमा जानी ।।टेक. ।। अबलौं मोह महामद पिय मैं, तुमरी सुधि विसरानी। भाग जगे तुम शांति छवी लखि, जड़ता नींद बिलानी।।१।।प्रभु. ।। जगविजयी दुखदाय रागरुष, तुम तिनकी थिति भानी। शांतिसुधा सागर गुन आगर, परमविराग विज्ञानी।।२।।प्रभु. ।। समवसरन अतिशय कमलाजुत, पै निर्ग्रन्थ निदानी। क्रोधबिना दुठ मोहविदारक, त्रिभुवनपूज्य अमानी।।३ ।।प्रभु. ।।
एकस्वरूप सकलज्ञेयाकृत, जग-उदास जग-ज्ञानी। शत्रुमित्र सबमें तुम सम हो, जो दुखसुख फल यानी।।४ ।।प्रभु. ।। परम ब्रह्मचारी है प्यारी, तुम हेरी शिवरानी। लै कृतकृत्य तदपि तुम शिवमग, उपदेशक अगवानी।।५ । ।प्रभु. ।। भई कृपा तुमरी तुममेंतें, भक्ति सु मुक्ति निशानी।
है दयाल अब देहु 'दौल' को, जो तुमने कृति ठानी।।६ ।।प्रभु. ।। २१. और अबै न कुदेव सुहावै
और अबै न कुदेव सुहावै, जिन थाके चरनन रति जोरी ।।टेक ।। कामकोहवश गहैं अशन असि, अंक निशंक धरै तिय गोरी।
औरनके किम भाव सुधारें, आप कुभाव-भारधर-धोरी ।।१।। तुम विनमोह अकोहछोहविन, छके शांत रस पीय कटोरी। तुम तज सेय अमेय भरी जो, जानत हो विपदा सब मोरी ।।२।। तुम तज तिनै भजै शठ जो सो दाख न चाखत खात निमोरी। हे जगतार उधार 'दौलको', निकट विकट भवजलधि हिलोरी ।।३।। २२. उरग-सुरग-नरईश शीस जिस, आतपत्र त्रिधरे
उरग-सुरग-नरईश शीस जिस, आतपत्र त्रिधरे । कुंदकुसुमसम चमर अमरगन, ढारत मोदभरे ।।उरग.।। तरु अशोक जाको अवलोकत, शोकथोक उजरे । पारजात संतानकादिके, बरसत सुमन वरे।।१।।उरग. ।। सुमणिविचित्र पीठअंबुजपर, राजत जिन सुथिरे । वर्णविगत जाकी धुनिको सुनि, भवि भवसिंधुतरे।।२ ।।उरग. ।। साढ़े बारह कोड़ जातिके, बाजत तूर्य खरे । भामंडलकी दुतिअखंडने, रविशशि मंद करे।।३।।उरग. ।। ज्ञान अनंत अनंत दर्श बल, शर्म अनंत भरे । करुणामृतपूरित पद जाके, 'दौलत' हृदय धरे।।४ ।।उरग. ।।