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ले आया दीपक चरणों में, रे ! अंतर आलोकित कर दो. प्रभु तेरे मेरे अन्तर' को, अविलंब निरन्तर से भर दो ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
धूप
धू-धू जलती दुःख की ज्वाला, प्रभु त्रस्त निखिल जगतीतल है, बेचेत पड़े सब देही हैं, चलता फिर राग प्रभंजन है । यह धूम घूमरी - खा-खाकर, उड़ रहा गगन की गलियों में, अज्ञानतमावृत चेतन ज्यो, चौरासी की रंग-रलियों में । संदेश धूप का तात्त्विक प्रभु, तुम हुये ऊर्ध्वगामी जग से, प्रगटे दशांगळे प्रभुवर तुम को, अंतः दशांग की सौरभ से ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय प्रष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
फल
शुभ - अशुभ वृत्ति एकांत दुःख, अत्यंत मलिन संयोगी है, अज्ञान विधाता है इसका, निश्चित चैतन्य विरोधी है । कांटों सी पैदा हो जाती, चैतन्य - सदन के आंगन में, चंचल छाया की माया सी, घटती क्षण में बढ़ती क्षण में । तेरी फल-पूजा का फल प्रभु ! हो शांत शुभाशुभ ज्वालायें, मधुकल्पफलों सी जीवन में प्रभु ! शांति लतायें छा जायें ।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तयें फलम् निर्वपामीति स्वाहा । अर्घ
निर्मल -जल-सा प्रभु निज स्वरूप, पहिचान उसी में लीन हुए, भव–ताप उतरने लगा तभी चंदन-सी उठी हिलोर हिये । अभिराम - भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति-प्रसून लगे खिलने, क्षुत-तृषा अठारह दोष क्षीण. कैवल्य प्रदीप लगा जलने । मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए, फल हुआ प्रभो ! ऐसा मधुरिम, तुम धवल निरंजन स्वस्त हुए ।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धम् निर्वपामीति स्वाहा । १. फर्क २. उत्तम क्षमादि दश धर्म ।
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