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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो, उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे – अग्नि की उष्णता। उष्णता अग्नि का स्वरूप होती हुई जलादि पदार्थों से उसे पृथक् करती है, अतः उष्णता अग्नि का आत्मभूत लक्षण है। जो लक्षण वस्तु से मिला हुआ न हो, उससे पृथक् हो, उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे - दण्ड वाले पुरुष (दंडी) का दण्ड। यद्यपि दण्ड पुरुष से भिन्न है, फिर भी वह अन्य पुरुष से उसे पृथक् करता है, अतः वह अनात्मभूत लक्षण हुआ। राजवार्तिक में भी इन भेदों का स्पष्टीकरण इसी प्रकार किया है - ‘अग्नि की उष्णता आत्मभूत लक्षण है और देवदत्त का दण्ड अनात्मभूत लक्षण है।" आत्मभूत लक्षण वस्तु का स्वरूप होने से वास्तविक लक्षण है; त्रिकाल वस्तु की पहिचान उससे ही की जा सकता है। अनात्मभूत लक्षण संयोग की अपेक्षा से बनाया जाता है, अतः वह संयोगवर्ती वस्तु की संयोगरहित अन्य वस्तुओं से भिन्न पहिचान कराने का मात्र तत्कालीन बाह्य प्रयोजन सिद्ध करता है। त्रिकाली असंयोगी वस्तु का ( वस्तुस्वरूप) निर्णय करने के लिए आत्म भूत (निश्चय) लक्षण ही कार्यकारी है। असंयोगी आत्मतत्त्व का ज्ञान उससे ही हो सकता है। किसी भी वस्तु का लक्षण बनाते समय बहुत सावधानी रखने की आवश्यकता है, क्योकिं वही लक्षण आगे चलकर परीक्षा का आधार बनता है। यदि लक्षण सदोष हो तो वह परीक्षा की कसौटी को सहन नहीं कर सकेगा और गलत सिद्ध हो जावेगा। शंकाकार - तो लक्षण सदोष भी होते हैं ? प्रवचनकार - लक्षण तो निर्दोष लक्षण को ही कहते हैं। जो लक्षण सदोष हों, उन्हें लक्षणाभास कहा जाता है। लक्षणाभासों में तीन प्रकार के दोष पाये जाते हैं - (१) अव्याप्ति (२) अतिव्याप्ति और (३) असम्भव दोष। १ “तत्रात्मभूतमग्नेरौष्ण्यमनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्डः।” - न्यायदीपिका : वीर सेवा मंदिर, सरसावा , पृष्ठ ६ १६ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008318
Book TitleTattvagyan Pathmala 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1989
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size383 KB
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