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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निश्चय-परमावश्यक अधिकार ३०० (मंदाक्रांता) आत्मा तिष्ठत्यतुलमहिमा नष्टदृक्शीलमोहो यः संसारोद्भवसुखकरं कर्म मुक्त्वा विमुक्तेः। मूले शीले मलविरहिते सोऽयमाचारराशि: तं वंदेऽहं समरससुधासिन्धुराकाशशांकम्।। २६२ ।। वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चखाण णियमं च। आलोयण वयणमयं तं सव्वं जाण सज्झायं ।। १५३ ।। वचनमयं प्रतिक्रमणं वचनमयं प्रत्याख्यानं नियमश्च । आलोचनं वचनमयं तत्सर्वं जानीहि स्वाध्यायम्।। १५३ ।। सकलवाग्विषयव्यापारनिरासोऽयम्। पाक्षिकादिप्रतिक्रमणक्रियाकारणं निर्यापकाचार्यमुखोद्गतं समस्तपापक्षयहेतुभुतं द्रव्यश्रुतमखिलं वाग्वर्गणायोग्यपुद्गलद्रव्यात्मकत्वान्न ग्राह्यं भवति, प्रत्याख्यान [ श्लोकार्थ:-] दर्शनमोह और चारित्रमोह जिसके नष्ट हुए हैं ऐसा जो अतुल महिमावाला आत्मा संसारजनित सुखके कारणभूत कर्मको छोड़कर मुक्तिका मूल ऐसे मलरहित चारित्रमें स्थित हैं, वह आत्मा चारित्रका पुंज है। समरसरूपी सुधाके सागरको उछालनेमें पूर्ण चंद्र समान वह आत्माको मैं वंदन करता हूँ। २६२। गाथा १५३ अन्वयार्थ:-[ वचनमयं प्रतिक्रमणं] वचनमय प्रतिक्रमण, [वचनमयं प्रत्याख्यानं ] वचनमय प्रत्याख्यान, [ नियमः] ( वचनमय) नियम [च] और [ वचनमयम् आलोचनं] वचनमय आलोचना-[ तत् सर्वं ] यह सब [ स्वाध्यायम् ] ( प्रशस्त अध्यवसायरूप) स्वाध्याय [जानीहि ] जान। टीका:-यह, समस्त वचनसंबंधी व्यापारका निरास (निराकरण , खंडन) है। पाक्षिक आदि प्रतिक्रमणक्रियाका कारण ऐसा जो निर्यापक आचार्यके मुखसे निकला हुआ, समस्त पापक्षयके हेतुभूत, सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत वह वचनवर्गणायोग्य पुद्गल-द्रव्यात्मक होनेसे ग्राह्य नहीं है। प्रत्याख्यान, रे वचनमय प्रतिक्रमण , वाचिक-नियम, प्रत्याख्यान ये। आलोचना वाचिक सभीको जान तू स्वाध्याय रे ।। १५३ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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