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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार २९७ तथा हि (मंदाक्रांता) मुक्त्वा जल्पं भवभयकरं बाह्यमाभ्यन्तरं च स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम्। ज्ञानज्योतिःप्रकटितनिजाभ्यन्तरांगान्तरात्मा क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श।। २५९ ।। जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा। झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि।। १५१ ।। यो धर्मशुक्लध्यानयोः परिणतः सोप्यन्तरंगात्मा। ध्यानविहीनः श्रमणो बहिरात्मेति विजानीहि।। १५१ ।। अत्र स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानद्वितयमेवोपादेयमित्युक्तम्। और ( इस १५० वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते [ श्लोकार्थ:-] भवभयके करनेवाले, बाह्य तथा अभ्यंतर जल्पको छोड़कर, समरसमय (समतारसमय) एक चैतन्यचमत्कारका सदा स्मरण करके, ज्ञानज्योति द्वारा जिसने निज अभ्यंतर अंग प्रगट किया है ऐसा अंतरात्मा, मोह क्षीण होने पर, किसी ( अद्भुत) परम तत्त्वको अंतरमें देखता है। २५९ । गाथा १५१ अन्वयार्थ:-[ यः] जो [धर्मशुक्लध्यानयोः ] धर्मध्यान और शुक्लध्यानमें [ परिणतः ] परिणत है [ सः अपि] वह भी [ अन्तरंगात्मा ] अंतरात्मा है; [ध्यान-विहीनः ] ध्यानविहीन [ श्रमणः ] श्रमण [ बहिरात्मा ] बहिरात्मा है [ इति विजानीहि ] ऐसा जान। टीका:-यहाँ (इस गाथामें), स्वात्माश्रित निश्चय-धर्मध्यान और निश्चय-शुक्लध्यान यह दो ध्यान ही उपादेय हैं ऐसा कहा है। रे धर्म शुक्ल सुध्यान परिणत अन्तरात्मा जानिये । अरु ध्यान विरहित श्रमणको बहिरातमा पहिचानिये ।। १५१ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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