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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार २८५ दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो। मोहंधयारववगयसमणा कहयंति एरिसयं ।। १४५ ।। द्रव्यगुणपर्यायाणां चित्तं यः करोति सोप्यन्यवशः। मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः कथयन्तीदृशम्।।१४५ ।। अत्राप्यन्यवशस्य स्वरूपमुक्तम्। यः कश्चिद् द्रव्यलिङ्गधारी भगवदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतमूलोत्तरपदार्थसार्थप्रतिपादनसमर्थः क्वचित् षण्णां द्रव्याणां मध्ये चित्तं धत्ते, क्वचित्तेषां मूर्तामूर्तचेतनाचेतनगुणानां मध्ये मनश्चकार, पुनस्तेषामर्थव्यंजनपर्यायाणां मध्ये बुद्धिं करोति, अपि तु त्रिकालनिरावरणनित्यानंदलक्षण निजकारणसमयसारस्वरूपनिरतसहज ज्ञानादिशुद्धगुणपर्याया- णामाधारभूतनिजात्मतत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश इत्युक्तः। गाथा १४५ अन्वयार्थ:-[ यः] जो [ द्रव्यगुणपर्यायाणां] द्रव्य-गुण-पर्यायोंमें ( अर्थात् उनके विकल्पोंमें ) [ चित्तं करोति ] मन लगाता है, [ सः अपि] वह भी [अन्यवशः ] अन्यवश है; [ मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः ] मोहान्धकार रहित श्रमण [ ईदृशम् ] ऐसा [ कथयन्ति ] कहते टीका:-यहाँ भी अन्यवशका स्वरूप कहा है। भगवान अर्हत्के मुखारविंदसे निकले हुए (-कहे गये) मूल और उत्तर पदार्थोंका सार्थ (-अर्थ सहित) प्रतिपादन करनेमें समर्थ ऐसा जो कोई द्रव्यलिंगधारी (मुनि) कभी छह द्रव्योंमें चित्त लगाता है, कभी उनके मूर्त-अमूर्त चेतन-अचेतन गुणोमें मन लगाता है और फिर कभी उनकी अर्थपर्यायों तथा व्यंजनपर्यायोंमें बुद्धि लगाता है परंतु त्रिकालनिरावरण, नित्यानंद जिसका लक्षण है ऐसे निजकारणसमयसारके स्वरूपमें लीन सहजज्ञानादि शुद्धगुणपर्यायोंके आधार-भूत निज आत्मतत्त्वमें चित्त कभी भी नहीं लगाता, उस तपोधनको भी उस कारणसे ही (अर्थात् पर विकल्पोंके वश होनेके कारणसे ही) अन्यवश कहा गया है। जो जोड़ता चित्त द्रव्य-गुण-पर्याय चिंतनमें अरे । रे मोह-विरहित-श्रमण कहते अन्यके वश ही उसे ।।१४५ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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