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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates परम-भक्ति अधिकार २७२ ( वसंततिलका) तत्त्वेषु जैनमुनिनाथमुखारविंदव्यक्तेषु भव्यजनताभवघातकेषु। त्यक्त्वा दुराग्रहममुं जिनयोगिनाथ: साक्षाधुनक्ति निजभावमयं स योगः।। २३० ।। उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं। णिव्बुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ।।१४० ।। वृषभादिजिनवरेन्द्रा एवं कृत्वा योगवरभक्तिम्। निर्वृतिसुखमापन्नास्तस्माद्धारय योगवरभक्तिम्।।१४० ।। भक्त्यधिकारोपसंहारोपन्यासोयम्। अस्मिन् भारते वर्षे पुरा किल श्रीनाभेयादिश्रीवर्द्धमानचरमाः चतुर्विंशतितीर्थकरपरमदेवाः सर्वज्ञवीतरागाः त्रिभुवनवर्तिकीर्तयो महादेवाधिदेवाः परमेश्वराः सर्वे [ श्लोकार्थ:-] इस दुराग्रहको (-उपरोक्त विपरीत अभिनिवेशको) छोड़कर, जैनमुनिनाथोंके ( -गणधरदेवादिक जैन मुनिनाथोंके) मुखारविंदसे प्रगट हुए, भव्य जनोंके भवोंका नाश करनेवाले तत्त्वोंमें जो जिनयोगीनाथ (जैन मुनिवर) निज भावको साक्षात् लगाता है, उसका वह निजभाव सो योग है। २३० । गाथा १४० अन्वयार्थ:-[वृषभादिजिनवरेन्द्राः] वृषभादि जिनवरेंद्र [एवम् ] इसप्रकार [ योगवरभक्तिम् ] योगकी उत्तम भक्ति [कृत्वा] करके [ निर्वृतिसुखम् ] निर्वृतिसुखको [ आपन्नाः ] प्राप्त हुए; [ तस्मात् ] इसलिये [ योगवरभक्तिम् ] योगकी उत्तम भक्तिको [धारय ] तू धारण कर। टीका:-यह, भक्ति अधिकारके उपसंहारका कथन है। इस भारतवर्षमें पहले श्री नाभिपुत्रसे लेकर श्री वर्धमान तकके चौबीस तीर्थंकरपरमदेव-सर्वज्ञवीतराग, त्रिलोकवर्ती कीर्तिवाले महादेवाधिदेव परमेश्वर-सब, यथोक्त वृषभादि जिनवर भक्ति उत्तम इस तरह कर योगकी। निवृत्ति सुख पाया अतः कर भक्ति उत्तम योगकी ।।१४०।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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