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________________ २४७ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ( द्रुतविलंबित) अनशनादितपश्चरणैः फलं समतया रहितस्य यतेर्न हि । तत इदं निजतत्त्वमनाकुलं भज मुने समताकुलमंदिरम् ।। २०२ ।। विरदो सव्वसावज्जे तिगुत्तो पिहिदिंदिओ । तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।। १२५ ।। विरत: सर्वसावद्ये त्रिगुप्तः पिहितेन्द्रियः । तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।। १२५ ।। इह हि सकलसावद्यव्यापाररहितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य सकलेन्द्रियव्यापारविमुखस्य तस्य च मुनेः सामायिकं व्रतं स्थायीत्युक्तम् । अथात्रैकेन्द्रियादिप्राणिनिकुरंबक्लेशहेतुभूतसमस्तसावद्य [ श्लोकार्थ :- ] वास्तवमें समता रहित यतिको अनशनादि तपश्चरणोंसे फल नहीं है; इसलिये, हे मुनि! समताका कुलमंदिर ऐसा जो यह अनाकुल निज तत्त्व उसे भज। २०२ । गाथा १२५ अन्वयार्थः-[ सर्वसावद्ये विरत: ] जो सर्व सावद्यमें विरत है, [ त्रिगुप्तः ] जो तीन गुप्तवाला है और [ पिहितेन्द्रियः ] जिसने इंद्रियोंको बंध (निरुद्ध ) किया है, [ तस्य ] उसे [ सामायिकं ] सामायिक [ स्थायि ] स्थायी है [ इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है। टीका:-यहाँ (इस गाथामें ), जो सर्व सावद्य व्यापारसे रहित है, जो त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त है और जो समस्त इंद्रियोंके व्यापारसे विमुख है, उस मुनिको सामायिकव्रत स्थायी है ऐसा कहा है। 1 यहाँ (इस लोकमें) जो एकेंद्रियादि प्राणीसमूहको क्लेशके हेतुभूत समस्त सावद्यके * कुलमंदिर = (१) उत्तम घर; (२) वंशपरंपराका घर। सावद्य - विरत, त्रिगुप्त अरु पिहितइन्द्रियसमूह जो रहे । स्थायी समायिक है उसे, यों केवली शासन कहे ।। १२५ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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