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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार २३८ (हरिणी) वचनरचनां त्यक्त्वा भव्यः शुभाशुभलक्षणां सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फुटम्। परमयमिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम्।।१९१ ।। (मालिनी) अनवरतमखंडाद्वैतचिन्निर्विकारे निखिलनयविलासो न स्फुरत्येव किंचित्। अपगत इह यस्मिन भेदवादस्समस्त:। तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि।। १९२ ।। __(अनुष्टुभ् ) इदं ध्यानमिदं ध्येयमयं ध्याता फलं च तत्। एभिर्विकल्पजालैर्यन्निर्मुक्तं तन्नमाम्यहम्।। १९३ ।। (अनुष्टुभ् ) भेदवादाः कदाचित्स्युर्यस्मिन् योगपरायणे। तस्य मुक्तिर्भवेन्नो वा को जानात्यार्हते मते।। १९४ ।। [अब इस १२० वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं:] | श्लोकार्थ:- | जो भव्य शुभाशुभस्वरूप वचनरचनाको छोड़कर सदा स्फुटरूपसे सहजपरमात्मको सम्यक् प्रकारसे भाता है, उस ज्ञानात्मक परम यमीको मुक्तिरूपी स्त्रीके सुखका कारण ऐसा यह शुद्ध नियम नियमसे ( -अवश्य ) है। १९१ । [ श्लोकार्थ:-] जो अनवरतरूपसे (-निरंतर) अखंड अद्वैत चैतन्यके कारण निर्विकार है उसमें (-उस परमात्मपदार्थमें ) समस्त नयविलास किंचित् स्फुरित ही नहीं होता। जिसमेंसे समस्त भेदवाद (-नयादि विकल्प) दूर हुए हैं (-उस परमात्मपदार्थको) मैं नमन करता हूँ, उसका स्तव करता हूँ, सम्यक् प्रकारसे भाता हूँ। १९२। [ श्लोकार्थ:-] यह ध्यान है, यह ध्येय है, यह ध्याता है और वह फल है-ऐसे विकल्पजालोंसे जो मुक्त (-रहित) है उसे (-उस परमात्मतत्त्वको) मैं नमन करता हूँ। १९३। [ श्लोकार्थ:-] जो योगपरायणमें कदाचित् भेदवाद उत्पन्न होते हैं ( अर्थात् जिस योगनिष्ठ योगीको कभी विकल्प उठते हैं), उसकी अर्हत्के मतमें मुक्ति होगी या नहीं होगी Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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