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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार २३४ अत्र प्रसिद्धशुद्धकारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तपः प्रायश्चित्तं भवतीत्युक्तम्। आसंसारत एव समुपार्जितशुभाशुभकर्मसंदोहो द्रव्यभावात्मक: पंचसंसारसंवर्धनसमर्थः परमतपश्चरणेन भावशुद्धिलक्षणेन विलयं याति, ततः स्वात्मानुष्ठाननिष्ठं परमतपश्चरणमेव शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमित्यभिहितम्। ___(मंदाक्रांता) प्रायश्चित्तं न पुनरपरं कर्म कर्मक्षयार्थं प्राहुः सन्तस्तप इति चिदानंदपीयूषपूर्णम्। आसंसारादुपचितमहत्कर्मकान्तारवतिज्वालाजालं शमसुखमयं प्राभृतं मोक्षलक्ष्म्याः ।। १८९ ।। टीका:-यहाँ (इस गाथामें), प्रसिद्ध शुद्धकारणपरमात्मातत्त्वमें सदा अंतर्मुख रहकर जो प्रतपन वह तप प्रायश्चित्त है (अर्थात् शुद्धात्मस्वरूपमें लीन रहकर प्रतपना-प्रतापवंत वर्तना सो तप है और वह तप प्रायश्चित्त है) ऐसा कहा है। अनादि संसारसे ही उपार्जित द्रव्यभावात्मक शुभाशुभ कर्मोंका समूह-कि जो पाँच प्रकारके ( –पाँच परावर्तनरूप) संसारका संवर्धन करनेमें समर्थ है वह-भावशुद्धिलक्षण (भावशुद्धि जिसका लक्षण है ऐसे) परमतपश्चरणसे विलय को प्राप्त होता है; इसलिये स्वात्मानुष्ठाननिष्ठ (–निज आत्माके आचरणमें लीन) परमतपश्चरण ही शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है ऐसा कहा गया है। [अब इस ११८ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते [श्लोकार्थ:-] जो (तप) अनादि संसारसे समृद्ध हुई कर्मोंकी महा अटवीको जला देनेके लिये अग्निकी ज्वालाके समूह समान है, शमसुखमय है और मोक्षलक्ष्मी के लिये भेंट है, उस चिदानंदरूपी अमृतसे भरे हुए तपको संत कर्मक्षय करनेवाला प्रायश्चित्त कहते हैं, परंतु अन्य किसी कार्यको नहीं। १८९ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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