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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार २३२ (द्रुतविलंबित) अनशनादितपश्चरणात्मकं सहजशुद्धचिदात्मविदामिदम्। सहजबोधकलापरिगोचरं सहजतत्त्वमघक्षयकारणम्।। १८४ ।। (शालिनी) प्रायश्चित्तं ह्युत्तमानामिदं स्यात् स्वद्रव्येऽस्मिन् चिन्तनं धर्मशुक्लम्। कर्मवातध्वान्तसद्बोधतेजोलीनं स्वस्मिन्निर्विकारे महिम्नि।। १८५ ।। ( मंदाक्रांता) आत्मज्ञानाद्भवति यमिनामात्मलब्धिः क्रमेण ज्ञानज्योतिर्निहतकरणग्रामघोरान्धकारा। कर्मारण्योद्भवदवशिखाजालकानामजनं प्रध्वंसेऽस्मिन् शमजलमयीमाशु धारां वमन्ती।। १८६ ।। [ श्लोकार्थ:-] अनशनादितपश्चरणात्मक (अर्थात् स्वरूपप्रतपनरूपसे परिणमित, प्रतापवंत अर्थात् उग्र स्वरूपपरिणतिसे परिणमित) ऐसा यह सहज-शुद्ध-चैतन्यस्वरूपको जाननेवालोंको सहजज्ञानकलापरिगोचर सहजतत्त्व अघक्षयका कारण है। १८४ । [श्लोकार्थ:-] जो ( प्रायश्चित्त ) इस स्वद्रव्यका धर्म और शुक्लरूप चिंतन है, जो कर्मसमूहके अंधकारको नष्ट करनेके लिये सम्यग्ज्ञानरूपी तेज है तथा जो अपनी निर्विकार महिमामें लीन है-ऐसा यह प्रायश्चित्त वास्तव में उत्तम पुरुषोंको होता है। १८५ । [ श्लोकार्थ:-] यमियोंको (-संयमियोंको) आत्मज्ञानसे क्रमशः आत्मलब्धि (आत्माकी प्राप्ति) होती है कि जिस आत्मलब्धिने ज्ञानज्योति द्वारा इंद्रियसमूहके घोर अंधकारका नाश किया है और जो आत्मलब्धि कर्मवनसे उत्पन्न (भवरूपी) दावानलकी शिखाजालका (शिखाओंके समूहका) नाश करने के लिये उसपर सतत् शमजलमयी धाराको तेजीसे छोड़ती है-बरसाती है। १८६। १। सहजज्ञानकलापरिगोचर = सहज ज्ञानकी कला द्वारा सर्व प्रकारसे ज्ञात होने योग्य। २। अघ = अशुद्धि; दोष; पाप। ( पाप तथा पुण्य दोनों वास्तवमें अघ हैं।) ३ धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप जो स्वद्रव्यचिंतन वह प्रायश्चित्त है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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