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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार २२८ तथाचोक्तं श्री गुणभद्रस्वामिभिः ( वसंततिलका) “चित्तस्थमप्यनवबुद्धय हरेण जाडयात् क्रुद्धा बहि: किमपि दग्धमनङ्गबुद्धया। घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः।।" (वसंततिलका) "चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुच्येत्। क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय । मानो मनागपि हतिं महतीं करोति।।'' (अनुष्टुभ् ) 'भेयं मायामहागन्मिथ्याघनतमोमयात्। यस्मिन् लीना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमाहयः।।'' इसीप्रकार ( आचार्यवर ) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २१६ , २१७, २२१ तथा २२३ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि: “ [ श्लोकार्थ:-] कामदेव (अपने ) चित्तमें रहने पर भी (अपनी) जड़ताके कारण उसे न पहिचानकर, शंकरने क्रोधी होकर बाह्यमें किसीको कामदेव समझकर उसे जला दिया। (चित्तमें रहेनेवाले कामदेव तो जीवित होनेके कारण) उसने की हुई घोर अवस्थाको (-कामविह्वल दशाको) शंकर प्राप्त हुए। क्रोधके उदयसे (-क्रोध उत्पन्न होनेसे ) किसे कार्यहानि नहीं होती?" । [ श्लोकार्थ:-] (युद्धमें भरतने बाहुबली पर चक्र छोड़ा परंतु वह चक्र बाहुबलिके दाहिने हाथमें आकर स्थिर हो गया।) अपने दाहिने हाथमें स्थित ( उस) चक्रको छोड़कर जब बाहुबलिने प्रव्रज्या ली तभी (तुरन्त ही) वे उस कारण मुक्ति प्राप्त कर लेते, परंतु वे ( मानके कारण मुक्ति प्राप्त न करके) वास्तवमें दीर्घ काल तक प्रसिद्ध (मानकृत) कलेशको प्राप्त हुए। थोड़ा भी मान महा हानि करता है!” “[ श्लोकार्थ:-] जिसमें (-जिस गड्ढेमें) छिपे हुए क्रोधादिक भयंकर सर्प देखे Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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