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________________ २१७ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार (अनुष्टुभ् ) प्रपद्येऽहं सदाशुद्धमात्मानं बोधविग्रहम्। भवमूर्तिमिमां त्यक्त्वा पुद्गलस्कन्धबन्धुराम् ।। १६६ ।। (अनुष्टुभ् ) अनादिममसंसाररोगस्यागदमुत्तमम्। शुभाशुभविनिर्मुक्तशुद्धचैतन्यभावना।। १६७ ।। ( मालिनी ) अथ विविधविकल्पं पंचसंसारमूलं शुभमशुभसुकर्म प्रस्फुटं तद्विदित्वा । भवमरणविमुक्तं पंचमुक्तिप्रदं यं तमहमभिनमामि प्रत्यहं भावयामि ।। १६८ ।। ( मालिनी ) अथ सुललितवाचां सत्यवाचामपीत्थं न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम्। तदपि गुरुवचोभिः प्राप्य यः शुद्धदृष्टि: स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः।। १६९ ।। पर मार्ग पर चालता हूँ ] । १६५ । [ श्लोकार्थ :- ] पुद्गलस्कंधों द्वारा जो अस्थिर है ( अर्थात् पुद्गलस्कंधोंके आनेजानेसे जो एक-सी नहीं रहती ) ऐसी इस भवमूर्तिको ( - भवकी मूर्तिरूप कायाको ) छोड़कर मैं सदाशुद्ध ऐसी जो ज्ञानशरीरी आत्मा उसका आश्रय करता हूँ। १६६ । [ श्लोकार्थ :- ] शुभ और अशुभसे रहित शुद्धचैतन्यकी भावना मेरे अनादि संसाररोगकी उत्तम औषधि है । १६७ । [ श्लोकार्थ :- ] पांच प्रकारके ( द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके परावर्तनरूप ) संसारका मूल विविध भेदोंवाला शुभाशुभ कर्म है ऐसा स्पष्ट जानकर, जो जन्ममरण रहित है और पांच प्रकारकी मुक्ति देनेवाला है उसे ( - शुद्धात्माको ) मैं नमन करता हूँ और प्रतिदिन भाता हूँ। १६८ । [ श्लोकार्थ:-] इसप्रकार आदि-अंत रहित ऐसी यह आत्मज्योति सुललित ( सुमधुर ) वाणीका अथवा सत्य वाणीका भी विषय नहीं है; तथापि गुरुके वचनों द्वारा उसे प्राप्त करके जो शुद्ध दृष्टिवाला होता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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