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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates परम-आलोचना अधिकार २१४ (मंदाक्रांता) एको भावः स जयति सदा पंचमः शुद्धशुद्धः कर्मारातिस्फुटितसहजावस्थया संस्थितो यः। मूलं मुक्तेर्निखिलयमिनामात्मनिष्ठापराणां । एकाकार: स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः।। १६० ।। (मंदाक्रांता) आसंसारादखिलजनतातीव्रमोहोदयात्सा मत्ता नित्यं स्मरवशगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा। ज्ञानज्योतिर्धवलितककुभमंडलं शुद्धभावं मोहाभावात्स्फुटितसहजावस्थमेषा प्रयाति।।१६१ ।। कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं। मज्झत्थभावणाए वियडीकरणं ति विण्णेयं ।। १११ ।। [अब इस ११० वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं :] [श्लोकार्थ:-] जो कर्मकी दूरीके कारण प्रगट सहजावस्थापूर्वक विद्यमान है, जो आत्मनिष्ठापरायण ( आत्मस्थित) समस्त मुनियोंको मुक्तिका मूल है, जो एकाकार है ( अर्थात् सदा एकरूप है), जो निज रसके विस्तारसे भरपूर होनेसे पवित्र है और जो पुराण (सनातन) है, ते शुद्ध-शुद्ध एक पंचम भाव सदा जयवंत है। १६०। [ श्लोकार्थ:-] अनादि संसारसे समस्त जनताको (जनसमूहको) तीव्र मोहके उदयके कारण ज्ञानज्योति सदा मत्त है, कामके वश है और निज आत्मकार्यमें मूढ़ है। मोहके अभावसे यह ज्ञानज्योति शुद्धभावको प्राप्त करती है कि जिस शुद्धभावने दिशामंडलको धवलित (-उज्ज्वल) किया है तथा सहज अवस्था प्रगट की है। १६१ । निर्मलगुणाकर कर्म-विरहित अनुभवन जो आत्मका। माध्यस्थ भावोंमें करे, अविकृतिकरण उसे कहा ।। १११।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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