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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार १८१ (अनुष्टुभ् ) "केवलज्ञानक्सौख्यस्वभावं तत्परं महः। तत्र ज्ञाते न किं ज्ञातं दृष्टे दृष्टं श्रुते श्रुतम्।।" तथा हि (मालिनी) जयति स परमात्मा केवलज्ञानमूर्तिः सकलविमलदृष्टि: शाश्वतानंदरूपः । सहजपरमचिच्छक्त्यात्मक: शाश्वतोयं निखिलमुनिजनानां चित्तपंकेजहंसः।। १२८ ।। णियभावं णवि मुच्चइ परभाव णेव गेण्हए केइं। जाणदि पस्सदि सव्वं सो हं इदि चिंतए णाणी।।९७ ।। निजभावं नापि मुंचति परभावं नैव गृह्णाति कमपि। जानाति पश्यति सर्वं सोहमिति चिंतयेद् ज्ञानी।। ९७ ।। “[ श्लोकार्थ:- वह परम तेज केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवलसौख्यस्वभावी है। उसे जानते हुए क्या नहीं जाना ? उसे देखते हुए क्या नहीं देखा ? उसका श्रवण करते हुए क्या नहीं सुना ?' __ और (इस ९६ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं) : [ श्लोकार्थ:-] समस्त मुनिजनोंके हृदयकमलका हँस ऐसा जो यह शाश्वत, केवलज्ञानकी मूर्तिरूप , सकलविमल दृष्टिमय ( –सर्वथा निर्मल दर्शनमय), शाश्वत आनंदरूप, सहज परम चैतन्यशक्तिमय परमात्मा वह जयवंत है। १२८।। अन्वयार्थ:-[ निजभावं] जो निजभावको [ न अपि मुंचति] नहीं छोड़ता, [ कम् अपि परभावं] किंचित् भी परभावको [न एव गृह्णाति ] ग्रहण नहीं करता, [ सर्वं ] सर्वको [ जानाति पश्यति ] जानता-देखता है, [ सः अहम् ] वह मैं हूँ-[ इति] ऐसा [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ चिंतयेत ] चिंतवन करता है। निजभावको छोड़े नहीं, किंचित् ग्रहे परभाव नहिं । देखे व जाने मैं वही, ज्ञानी करे चिंतन यही ।। ९७।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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