SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७३ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तथा हि नियमसार ( मन्दाक्रांता ) आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं ध्यानध्येयप्रमुखसुतपःकल्पनामात्ररम्यम्। बुद्ध्वा धीमान् सहजपरमानन्दपीयूषपूरे निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे ।। १२३ ।। झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं । तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ।। ९३ ।। ध्याननिलीनः साधुः परित्यागं करोति सर्वदोषाणाम् । तस्मात्तु ध्यानमेव हि सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणम् ।। ९३ ।। अत्र ध्यानमेकमुपादेयमित्युक्तम् । और (इसीप्रकार ९२ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ): [ श्लोकार्थ :- ] आत्मध्यानके अतिरिक्त अन्य सब घोर संसारका मूल है, (और) ध्यान-ध्येयादिक सुतप ( अर्थात् ध्यान, ध्येय आदिके विकल्पवाला शुभ तप भी ) कल्पनामात्र रम्य है;–ऐसा जानकर धीमान ( - बुद्धिमान पुरुष ) सहज परमानंदरूपी पीयूषके पूरमें डूबते हुए (-निमग्न होते हुए) ऐसे एक सहज परमात्माका आश्रय करते हैं । १२३ । गाथा ९३ अन्वयार्थः-[ ध्याननिलीनः ] ध्यानमें लीन [ साधुः ] साधु [ सर्वदोषाणाम्] सर्व दोषोंका [ परित्यागं ] परित्याग [ करोति ] करते हैं; [ तस्मात् तु ] इसलिये [ ध्यानम् एव ] ध्यान ही [हि ] वास्तवमें [ सर्वातिचारस्य ] सर्व अतिचारका [ प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है । टीका:- यहाँ ( इस गाथामें ), ध्यान एक उपादेय है ऐसा कहा है। मेरे साधु करता ध्यानमें सब दोष का परिहार है । अतएव ही सर्वातिचार प्रतिक्रमण यह ध्यान है ।। ९३ ।। Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy