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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार १६३ ( अनुष्टुभ् ) शल्यत्रयं परित्यज्य निःशल्ये परमात्मनि। स्थित्वा विद्वान्सदा शुद्धमात्मानं भावयेत्स्फुटम्।। ११६ ।। ___ (पृथ्वी) कषायकलिरंजितं त्यजतु चित्तमुचैभवान् भवभ्रमणकारणं स्मरशराग्निदग्धं मुहुः। स्वभावनियतं सुखं विधिवशादनासादितं भज त्वमलिनं यते प्रबलसंसृते तितः।। ११७ ।। चत्ता अगुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा।।८८ ।। त्यक्त्वा अगुप्तिभावं त्रिगुप्तिगुप्तो भवेद्यः साधुः। स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात्।।८८ ।। [ श्लोकार्थ:-] तीन शल्योंका परित्याग करके, निःशल्य परमात्मामें स्थित रह कर, विद्वानको सदा शुद्ध आत्माको स्फुटरूपसे भाना चाहिये । ११६ । [ श्लोकार्थ:-] हे यति! जो (चित्त) भवभ्रमणका कारण है और बारंबार कामबाणकी अग्निसे दृग्ध है-ऐसे कषायकलेशसे रंगे हुए चित्तको तू अत्यंत छोड़; जो विधिवशात् (-कर्मवशताके कारण ) अप्राप्त है ऐसे निर्मल स्वभावनियत सुखको तू प्रबल संसारकी भीतिसे डरकर भज। ११७। गाथा ८८ अन्वयार्थ:-[ यः साधुः] जो साधु [अगुप्तिभावं] अगुप्तिभाव [ त्यक्त्वा] छोड़कर [ त्रिगुप्तिगुप्तः भवेत् ] त्रिगुप्तिगुप्त रहता है, [ सः ] वह ( साधु ) [ प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [ उच्यते ] कहलाता है, [ यस्मात् ] कारण कि वह [ प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है। * स्वभावनियत = स्वभावमें निश्चित रहा हुआ; स्वभावमें नियमसे रहा हुआ। जो साधु छोड़ अगुप्तिको त्रय-गुप्तिमें विचरण करे ।, प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ।। ८८।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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