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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार १६१ परमतत्त्वगतं तत एव स तपोधनः सदा शुद्ध इति। तथा चोक्तं प्रवचनसारव्याख्यायाम् ( शार्दूलविक्रीडित) "इत्येवं चरणं पुराणपुरुषैर्जुष्टं विशिष्टादरैरुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्बह्वीः पृथग्भूमिकाः। आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यतिः सर्वतश्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम्।।" तथा हि (मालिनी) विषयसुखविरक्ताः शुद्धतत्त्वानुरक्ताः तपसि निरतचित्ताः शास्त्रसंघातमत्ताः। गुणमणिगणयुक्ताः सर्वसंकल्पमुक्ताः कथममृतवधूटीवल्लभा न स्युरेते।।११५ ।। परमात्मद्रव्यमें स्थिरभाव करता है,) वह मुनि निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप कहलाता है, कारण कि उसे परमतत्त्वगत (-परमात्मतत्त्वके साथ संबंधवाला) निश्चयप्रतिक्रमण है इसीलिये वह तपोधन सदा शुद्ध है। इसप्रकार श्री प्रवचनसारकी ( अमृतचंद्राचार्यदेवकृत तत्त्वदीपिका नामकी) टीकामें (१५ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : “[ श्लोकार्थ:-] इसप्रकार विशिष्ट 'आदरवाले पुराण पुरुषों द्वारा सेवन किया गया, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा अनेक पृथक् पृथक् भूमिकाओंमें व्याप्त जो चरण (चारित्र) उसे यति प्राप्त करके, क्रमशः अतुल निवृत्ति करके, चैतन्यसामान्य और चैतन्यविशेषरूप जिनका प्रकाश है ऐसे निजद्रव्यमें सर्वतः स्थिति करो।" और (इस ८६ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं) : [ श्लोकार्थ:-] जो विषयसुखसे विरक्त हैं, शुद्ध तत्त्वमें अनुरक्त हैं, तत्वमें लीन जिनका चित्त है, शास्त्रसमूहमें जो मत्त हैं, गुणरूपी मणिओंके समुदायससे युक्त हैं और सर्व संकल्पोंसे मुक्त है, वे मुक्तिसुंदरीके वल्लभ क्यों न होंगे ? ( अवश्य ही होंगे।) ११५ । * आदर = सावधानी; प्रयत्न; बहुमान। * मत्त = मस्त; पागल; अतिशय प्रीतिवंत; अति आनंदित। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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