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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार १५७ (मालिनी) "अनवरतमनंतैर्बध्यते सापराध: स्पृशति निरपराधो बंधनं नैव जातु। नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी।।'' तथा हि (मालिनी) अपगतपरमात्मध्यानसंभावनात्मा नियतमिह भवार्तः सापराधः स्मृतः सः। अनवरतमखंडाद्वैतचिद्भावयुक्तो भवति निरपराधः कर्मसंन्यासदक्षः।। ११२ ।। मोत्तूण अणायारं आयारे जो दु कुणदि थिरभावं। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा।। ८५ ।। “[ श्लोकार्थ:-] सापराध आत्मा निरंतर अनंत (पुद्गलपरमाणुरूप) कर्मोंसे बँधता है; निरपराध आत्मा बंधनको कदापि स्पर्श ही नहीं करता। जो सापराध आत्मा है वह तो नियमसे अपनेको अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है; निरपराध आत्मा तो भलीभाँति शुद्ध आत्माका सेवन करने वाला होता है।" और (इस ८४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ): [श्लोकार्थ:-] इस लोकमें जो जीव परमात्मध्यानकी संभावना रहित है ( अर्थात् जो जीव परमात्माके ध्यानरूप परिणमनसे रहित है-परमात्मध्यानरूप परिणमित नहीं हुआ है) वह भवार्त जीव नियमसे सापराध माना गया है; जो जीव निरंतर अखंड-अद्वैतचैतन्यभावसे युक्त है वह कर्मसंन्यासदक्ष (-कर्मत्यागमें निपुण) जीव निरपराध है। ११२। जो जीव त्याग-आचारण आचारमें स्थिरता करे । प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ।। ८५।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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