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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार १५५ ( मालिनी) "अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पैरयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः। स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति।।'' तथा हि (आर्या) अतितीव्रमोहसंभवपूर्वार्जितं तत्प्रतिक्रम्य। आत्मनि सद्बोधात्मनि नित्यं वर्तेऽहमात्मना तस्मिन्।। १११ ।। आराहणाइ वट्टइ मोत्तूण विराहणं विसेसेण। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा।। ८४ ।। आराधनायां वर्तते मुक्त्वा विराधनं विशेषेण। स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात्।। ८४ ।। “[ श्लोकार्थ:-] अधिक कहने से तथा अधिक दुर्विकल्पोंसे बस होओ, बस होओ; यहाँ इतना ही कहना है कि इस परम अर्थका एकका ही निरंतर अनुभवन करो; क्योंकि निज रसके विस्तारसे पूर्ण जो ज्ञान उसके स्फुरायमान होनेमात्र जो समयसार ( - परमात्मा) उससे ऊँचा वास्तवमें अन्य कुछ भी नहीं (-समयसारके अतिरिक्त अन्य कुछ भी सारभूत नहीं है)।” और (इस ८३ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ): [ श्लोकार्थ:-] अति तीव्र मोहकी उत्पत्तिसे जो पूर्वमें उपार्जित (कर्म) उसका प्रतिक्रमण करके, मैं सद्बोधात्मक (सम्यग्ज्ञानस्वरूप) ऐसे उस आत्मामें आत्मासे नित्य वर्तता हूँ । १११। गाथा ८४ अन्वयार्थ:-[ विराधनं ] जो (जीव) विराधनको [ विशेषेण] विशेषतः छोड़े समस्त विराधना आराधनारत जो रहे। प्रतिक्रमणयता हेतुसे प्रतिक्रमण उसको ही कहें ।। ८४।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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