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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार १४३ निजकारणसमयसारस्वरूपसम्यश्रद्धानपरिज्ञानाचरणप्रतिपक्षमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राभावा न्न-र्मोहा: च। इत्थंभूतपरमनिर्वाणसीमंतिनीचारुसीमंतसीमाशोभामसृणघुसृणरज:पुंजपिंजरितवर्णा-लंकारावलोकनकौतूहलबुद्धयोऽपि ते सर्वेऽपि साधवः इति। (आर्या) भविनां भवसुखविमुखं त्यक्तं सर्वाभिषंगसंबंधात्। मंक्षु विमंक्ष्व निजात्मनि वंद्यं नस्तन्मनः साधोः।। १०६ ।। एरिसयभावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं। णिच्छयणयस्स चरणं एत्तो उड्ढे पवक्खामि।। ७६ ।। ईदृग्भावनायां व्यवहारनयस्य भवति चारित्रम। निश्चयनयस्य चरणं एतदूवं प्रवक्ष्यामि।। ७६ ।। निज कारणसमयसारके स्वरूपके सम्यक् श्रद्धान,सम्यक् परिज्ञान और सम्यक् आचरणसे प्रतिपक्ष ऐसे मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्रका अभाव होनेके कारण निर्मोह;--ऐसे, परमनिर्वाणसुंदरीकी सुंदर माँगकी शोभारूप कोमल केशरके रज-पुंजके सुवर्णरंगी अलंकारको (-केशर-रजकी कनकरंगी शोभाको) देखनेमें कौतूहलबुद्धिवाले वे समस्त साधु होते हैं ( अर्थात् पूर्वोक्त लक्षणवाले , मुक्तिसुंदरीकी अनुपमता का अवलोकन करने में आतुर बुद्धिवाले समस्त साधु होते हैं )। [ अब ७५ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं: ] [ श्लोकार्थ:-] भववाले जीवोंके भवसुखसे जो विमुख हैं और सर्व संगके संबंधसे जो मुक्त है, ऐसा वह साधुका मन हमें वंद्य हैं। हे साधु! उस मनको शीघ्र निजात्मामें मग्न करो। १०६। गाथा ७६ अन्वयार्थ:-[ ईदृग्भावनायाम् ] ऐसी [पूर्वोक्त] भावनामें [व्यवहारनयस्य ] व्यवहारनयके अभिप्रायसे [ चारित्रम् ] चारित्र [भवति] है; [ निश्चयनयस्य ] निश्चयनयके अभिप्रायसे [ चरणम् ] चारित्र [ एतदूर्ध्वम् ] इसके पश्चात् [ प्रवक्ष्यामि ] कहूँगा। इस भावनामें जानिये चारित्र नय व्यवहारसे । निश्चय-चरण अब मैं कहूँ निश्चयनयात्मक द्वारसे। ७६ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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