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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates व्यवहारचारित्र अधिकार १३२ या रागादिनिवृत्तिर्मनसो जानीहि तां मनोगुप्तिम्। अलीकादिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वाग्गुप्तिः।। ६९ ।। निश्चयनयेन मनोवाग्गुप्तिसूचनेयम्। सकलमोहरागद्वेषाभावादखंडाद्वैतपरमचिद्रूपे सम्यगवस्थितिरेव निश्चयमनोगुप्तिः। हे शिष्य त्वं तावदचलितां मनोगुप्तिमिति जानीहि। निखिलानृतभाषापरिहृतिर्वा मौनव्रतं च। मूर्तद्रव्यस्य चेतनाभावाद् अमूर्तद्रव्यस्येंद्रियज्ञानागोचरत्वादुभयत्र वाक्प्रवृत्तिर्न भवति। इति निश्चयवाग्गुप्तिस्वरूपमुक्तम्। (शार्दूलविक्रीडित) शस्ताशस्तमनोवचस्समुदयं त्यक्त्वात्मनिष्ठापरः शुद्धाशुद्धनयातिरिक्तमनघं चिन्मात्रचिन्तामणिम्। प्राप्यानंतचतुष्टयात्मकतया सार्धं स्थितां सर्वदा जीवन्मुक्तिमुपैति योगितिलकः पापाटवीपावकः।। ९४ ।। अन्वयार्थ:-[ मनसः ] मनमेंसे [या ] जो [रागादिनिवृत्तिः] रागादिकी निवृत्ति [ ताम् ] उसे [ मनोगुप्तिम् ] मनोगुप्ति [ जानीहि ] जान। [ अलीकादिनिवृत्तिः ] असत्यादिकी निवृत्ति [ वा ] अथवा [ मौनं वा ] मौन [ वाग्गुप्तिः भवति ] वह वचनगुप्ति है। टीका:-यह, निश्चयनयसे मनोगुप्ति और वचनगुप्तिकी सूचना है। सकल मोहरागद्वेषके अभावके कारण अखंड अद्वैत परमचिद्रूपमें सम्यक्रूप अवस्थित रहना ही निश्चयमनोगुप्ति है। हे शिष्य! तू उसे वास्तवमें अचलित मनोगुप्ति जान। समस्त असत्य भाषाका परिहार अथवा मौनव्रत सो वचनगुप्ति है। मूर्तद्रव्यको चेतनाका अभाव होनेके कारण और अमूर्तद्रव्य इन्द्रियज्ञानसे अगोचर होनेके कारण दोनों के प्रति वचनप्रवृत्ति नहीं होती। इसप्रकार निश्चयवचनगुप्तिका स्वरूप कहा गया है। [अब ६९ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं: ] [ श्लोकार्थ:-] पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान ऐसा योगितिलक (मुनिशिरोमणि) प्रशस्त-अप्रशस्त मनवाणीके समुदायको छोड़कर आत्मनिष्ठामें परायण रहता हुआ, शुद्धनयसे और अशुद्धनयसे रहित ऐसे अनघ (-निर्दोष ) चैतन्यमात्र चिंतामणिको प्राप्त करके, Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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