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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार कारणं पुरुषमुखविकारगतं हास्यकर्म। कर्णशष्कुलीविवराभ्यर्णगोचरमात्रेण परेषामप्रीतिजननं हि कर्कशवचः। परेषां भूताभूतदूषणपुरस्सरवाक्यं परनिन्दा। स्वस्य भूताभूतगुणस्तुतिरात्मप्रशंसा। एतत्सर्वमप्रशस्तवचः परित्यज्य स्वस्य च परस्य च शुभशुद्धपरिणतिकारणं वचो भाषासमितिरिति। तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः ( मालिनी) "समधिगतसमस्ताः सर्वसावद्यदूराः स्वहितनिहितचित्ताः शांतसर्वप्रचाराः। स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः कथमिह न विमुक्तेर्भाजनं ते विमुक्ताः।।'' तथा च कारण, पुरुषके मुंहके विकारके साथ संबंधवाला, वह हास्यकर्म है। कर्म छिद्रके नकट पहुँचनेमात्रसे जो दूसरोंको अप्रीति उत्पन्न करते हैं वे कर्कश वचन हैं। दूसरेके विद्यमानअविद्यमान दूषणपूर्वकके वचन ( अर्थात् परके सच्चे तथा झूठे दोष कहनेवाले वचन) वह परनिंदा है। अपने विद्यमान-अविद्यमान गुणोंकी स्तुति वह आत्मप्रशंसा है। यह सब अप्रशस्त वचनोंके परित्याग पूर्वक स्व तथा परके शुभ और शुद्ध परिणतिके कारणभूत वचन वह भाषासमिति है। इसीप्रकार (आचार्यवर ) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २२६ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि: __“[ श्लोकार्थ:-] जिन्होंने सब ( वस्तुस्वरूप) जान लिया है, जो सर्व सावद्यसे दूर हैं, जिन्होंने स्वहितमें चित्तको स्थापित किया है, जिन्होंने सर्व प्रचार शांत हुआ है, जिनकी भाषा स्वपरको सफल (हितरूप) है, जो सर्व संकल्प रहित है, वे विमुक्त पुरुष इस लोकमें विमुक्तिका भाजन क्यों नहीं होंगे? ( अर्थात् ऐसे मुनिजन अवश्य मोक्षके पात्र हैं।)" और (६२ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं): * प्रचार = व्यवस्था; कार्य सिर पर लेना; आरंभ; बाह्य प्रवृत्ति। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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