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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates 卐 卐 5 -8 व्यवहारचारित्र अधिकार 卐 5 卐 55555555555555555555 अथेदानीं व्यवहारचारित्राधिकार उच्यते। कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं । तस्सारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमवदं ।। ५६ ।। कुलयोनिजीवमार्गणास्थानादिषु ज्ञात्वा जीवानाम् । तस्यारम्भनिवृत्तिपरिणामो भवति प्रथमव्रतम् ।। ५६ ।। अहिंसाव्रतस्वरूपाख्यानमेतत्। कुलविकल्पो योनिविकल्पश्च जीवमार्गणास्थानविकल्पाश्च प्रागेव प्रतिपादिताः। अत्र पुनरुक्तिदोषभयान्न प्रतिपादिताः । तत्रैव तेषां भेदान् बुद्ध्वा तद्रक्षापरिणतिरेव भवत्यहिंसा। अब व्यवहारचारित्र अधिकार कहा जाता है 1 गाथा ५६ अन्वयार्थः-[ जीवानाम् ] जीवोंके [ कुलयोनिजीवमार्गणास्थानादिषु ] कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि [ ज्ञात्वा ] जानकर [ तस्य ] उनके [ आरम्भनिवृत्तिपरिणामः ] आरंभसे निवृत्तिरूप परिणाम वह [ प्रथमव्रतम् ] पहला व्रत [ भवति ] है। टीका:-यह, अहिंसाव्रतके स्वरूपका कथन है । कुलभेद, योनिभेद, जीवस्थानके भेद और मार्गणास्थानके भेद पहले ही (४२ वीं गाथाकी टीकामें ही) प्रतिपादित किये गये हैं, यहाँ पुनरुक्तिदोषके भयसे प्रतिपादित नहीं किये गये हैं । वहाँ कहे हुए उनके भेदोंको जानकर उनकी रक्षारूप परिणति ही अहिंसा है। रे जानकर कुलयोनि, जीवस्थान, मार्गणा जीवके । आरंभ इनके से विरत हो, प्रथमव्रत कहते उसे ।। ५६ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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