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________________ १०३ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ( शालिनी ) न ह्यस्माकं शुद्धजीवास्तिकायादन्ये सर्वे पुद्गलद्रव्यभावाः । इत्थं व्यक्तं वक्ति यस्तत्त्ववेदी सिद्धिं सोऽयं याति तामत्यपूर्वाम्।। ७४ ।। हेयोवादेयतच्चाणं ।। ५२ ।। विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं । संसयविमोहविब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ।। ५१ ।। चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं । अधिगमभावो णाणं सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा । अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी ।। ५३ ।। सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं । ववहारणिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ।। ५४ ।। ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स होदि तवचरणं। णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो ।। ५५ ।। [ श्लोकार्थ :- ] “ शुद्ध जीवास्तिकायसे अन्य ऐसे जो सब पुद्गलद्रव्यके भाव वे वास्तवमें हमारे नहीं हैं” - ऐसा जो तत्त्ववेदी स्पष्टरूपसे कहते हैं वे अति अपूर्व सिद्धिको प्राप्त होते हैं । ७४। मिथ्याभिप्राय विहीन जो श्रद्धान वह सम्यक्त्व है । संशय, विमोह, विभ्रांति विरहित ज्ञान सुज्ञानत्व है ।। ५१ ।। चल, मल, अगाढ़पने रहित श्रद्धान वह सम्यक्त्व है । आदेय, हेय पदार्थका अवबोध सुज्ञानत्व है ।। ५२ ।। जिनसूत्र समकित हेतु है, अरु सूत्रज्ञाता पुरुष जो । वह जान अंतर्हेतु जिसके दर्श-मोहक्षयादि हो ।। ५३ ।। सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान अरु चारित्र मोक्ष उपाय है । व्यवहार निश्चयसे अतः चारित्र मम प्रतिपाद्य है ।। ५४ ।। व्यवहारनयचारित्रमें व्यवहारनय तप जानिये । चारित्र निश्चयमें तपश्चर्या नियत नय मानिये ।। ५५ ।। Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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