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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार १०१ तथा हि ( स्वागता) शुद्धनिश्चयनयेन विमुक्तौ संसृतावपि च नास्ति विशेषः। एवमेव खलु तत्त्वविचारे शुद्धतत्त्वरसिकाः प्रवदन्ति।। ७३ ।। पुव्वुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं । सगदव्वमुवादेयं अंतरतचं हवे अप्पा।।५० ।। पूर्वोक्तसकलभावाः परद्रव्यं परस्वभावा इति हेयाः। स्वकद्रव्यमुपादेयं अन्तस्तत्त्वं भवेदात्मा।। ५० ।। हेयोपादेयत्यागोपादानलक्षणकथनमिदम्। ये केचिद् विभावगुणपर्यायास्ते पूर्व व्यवहारनयादेशादुपादेयत्वेनोक्ताः और (इस ४९ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते है): [ श्लोकार्थ:-] “शुद्धनिश्चयनयसे मुक्तिमें तथा संसार में अंतर नहीं है;" ऐसा ही वास्तवमें, तत्त्व विचारने पर (-परमार्थ वस्तुस्वरूपका विचार अथवा निरूपण करने पर), शुद्ध तत्त्वके रसिक पुरुष कहते हैं। ७३। गाथा ५० अन्वयार्थ:-[ पूर्वोक्तसकलभावाः ] पूर्वोक्त सर्व भाव [ परस्वभावाः ] परस्वभाव हैं, [परद्रव्यम् ] परद्रव्य हैं, [इति] इसलिये [हेयाः ] हेय हैं; [अन्तस्तत्त्वं ] अंतःतत्त्व [ स्वकद्रव्यम् ] ऐसा स्वद्रव्य-[ आत्मा ] आत्मा-[ उपादेयम् ] उपादेय [ भवेत् ] है। टीका:-यह, हेय-उपादेय अथवा त्याग-ग्रहणके स्वरूपका कथन है। जो कोई विभावगुणपर्यायें हैं वे पहले ( ४९ वी गाथामें ) व्यवहारनयके कथन पर-द्रव्य परभाव है पूर्वोक्त सारे भाव ही। अतएव हैं ये त्याज्य , अंतःतत्त्व है आदेय ही ।।५।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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