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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धभाव अधिकार ८८ मनोदण्डो वचनदण्ड: कायदण्डश्चेत्येतेषां योग्यद्रव्यभावकर्मणामभावान्निर्दण्डः। निश्चयेन परमपदार्थव्यतिरिक्तसमस्तपदार्थसार्थाभावान्निर्दण्द्वः। प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वेषाभावान्निर्ममः। निश्चयेनौदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणाभिधानपंचशरीरप्रपंचाभावान्निःकलः। निश्चयेन परमात्मन: परद्रव्यनिरवलम्बत्वान्निरालंबः। मिथ्यात्ववेदरागद्वेषहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साक्रोधमानमायालोभाभिधानाभ्यन्तरचतुर्दशपरिग्रहाभावान्नीरागः। निश्चयेन निखिलदुरितमलकलंकपंकनिर्निक्तसमर्थसहजपरमवीतरागसुखसमुद्रमध्यनिर्मग्नस्फुटितसह -जावस्थात्मसहजज्ञानगात्रपवित्रत्वानिर्दोषः। सहजनिश्चयनयबलेन सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखाद्यनेकपरमधाधारनिजपरमतत्त्वपरिच्छेदनसमर्थतवा न्न-मूढः, अथवा साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयबलेन त्रिकालत्रिलोक वर्तिस्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानावस्थत्वान्निर्मूढश्च ।निखिलदुरितवीरवैरिवाहिनीदुःप्रवेशनिजशुद्धान्तस्तत्त्वमहादुर्गनिलयत्वान्निर्भयः । अयमात्मा ह्युपादेयः इति। मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्डके योग्य द्रव्यकर्मों तथा भावकर्मोंका अभाव होनेसे आत्मा निर्दण्ड है। निश्चयसे परम पदार्थके अतिरिक्त समस्त पदार्थसमूहका (आत्मामें) अभाव होनेसे आत्मा निर्द्वन्द्व (द्वैत रहित) है। प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त मोह राग-द्वेषका अभाव होनेसे आत्मा निर्मम (ममता रहित) है। निश्चयसे औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण नामक पाँच शरीरोंके समूहका अभाव होनेसे आत्मा निःशरीर है। निश्चयसे परमात्माको परद्रव्यका अवलम्बन न होनेसे आत्मा निरालम्ब है। मिथ्यात्व, वेद, राग, द्वेष, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चौदह अभ्यंतर परिगहोंका अभाव होनेसे आत्मा निराग है। निश्चयसे समस्त पापमलकलंकरूपी कीचड़को धो डालनेमें समर्थ, सहज-परमवीतराग-सुखसमुद्रमें मग्न (डूबी हुई लीन) प्रगट सहजावस्थास्वरूप जो सहजज्ञानशरीर उसके द्वारा पवित्र होनेके कारण आत्मा निर्दोष है। सहज निश्चयनयसे सहज ज्ञान, सहज दर्शन, सहज चारित्र, सहज परमवीतराग सुख आदि अनेक परम धर्मों के आधारभूत निज परमतत्त्वको जाननेमें समर्थ होनेसे आत्मा निर्मूढ़ (मूढ़ता रहित) है; अथवा, सादि-अनन्त अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले शुद्धसद्भूत व्यवहारनयसे तीन काल और तीन लोकके स्थावर-जंगमस्वरूप समस्त द्रव्य-गण-पर्यायोंको एक समयमें जाननेमें समर्थ सकल-विमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञानरूपसे अवस्थित होनेसे आत्मा निर्मूढ़ है। समस्त पापरूपी शूरवीर शत्रुओंकी सेना जिसमें प्रवेश नहीं कर सकती ऐसे निज शुद्ध अन्तःतत्त्वरूप महा दुर्गमें (किलेमें) निवास करनेसे आत्मा निर्भय है। ऐसा यह आत्मा वास्तवमें उपादेय है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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