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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धभाव अधिकार ७८ न खलु जघन्यमध्यमोत्कृष्टद्रव्य-कर्मस्थितिबंधस्थानानि। ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मणां तत्तद्योग्यपुद्गलद्रव्यस्वाकारः प्रकृतिबन्धः, तस्य स्थानानि न भवन्ति। अशुद्धान्तस्तत्त्वकर्मपुद्गलयोः परस्परप्रदेशानुप्रवेशः प्रदेशबन्धः, अस्य बंधस्य स्थानानि वा न भवन्ति। शुभाशुभकर्मणां निर्जरासमये सुखदुःखफलप्रदानशक्तियुक्तो ह्यनुभागबन्धः, अस्य स्थानानां वा न चावकाशः। न च द्रव्यभावकर्मोदयस्थानानामप्यवकाशोऽस्ति इति। तथा चोक्तं श्रीअमृतचन्द्रसूरिभिः (मालिनी) '' न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरि तरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम्। अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात् । जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम्।।'' तथा हि वास्तवमें द्रव्यकर्मके जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट स्थितिबंधके स्थान नहीं हैं। ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मोंमेंके उस-उस कर्मके योग्य ऐसा जो पुद्गलद्रव्यका स्व-आकार वह प्रकृतिबंध है; उसके स्थान (निरंजन निज परमात्मतत्त्वको) नहीं हैं। अशुद्ध अंतःतत्त्वके ( -अशुद्ध आत्माके) और कर्मपुद्गलके प्रदेशोंका परस्पर प्रवेश वह प्रदेशबंध है; इस बंधके स्थान भी (निरंजन निज परमात्मतत्त्वको) नहीं हैं। शुभाशुभ कर्मकी निर्जराके समय सुखदुःखरूप फल देनेकी शक्तिवाला वह अनुभागबंध है; इसके स्थानोंका भी अवकाश (निरंजन निज परमात्मतत्त्वमें) नहीं है। और द्रव्यकर्म तथा भावकर्म उदयकें स्थानोंका भी अवकाश (निरंजन निज परमात्मतत्त्वमें) नहीं है। इसप्रकार ( आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिने ( श्री समयसारकी आत्मख्याति नामकी टीकामें ११ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : “[ श्लोकार्थ:-] जगत मोहरहित होकर सर्व ओरसे प्रकाशमान ऐसे उस सम्यक् स्वभावका ही अनुभवन करना चाहिये कि जिसमें यह बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव उत्पन्न होकर स्पष्टरूपसे ऊपर तैरते होने पर भी वास्तवमें स्थितिको प्राप्त नहीं होते।" और (४० वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते है) : * निरुपराग = उपराग रहित। [ उपराग = किसी पदार्थमें, अन्य उपाधिकी समीपताके निमित्तसे होनेवाला उपाधिके अनुरूप विकारी भाव; औपाधिक भाव; विकार; मलिनता।] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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