________________
५४८
કલશામૃત ભાગ-૪ સમ્યજ્ઞાનને સમુદ્રની ઉપમા. (સવૈયા એકત્રીસા) जाके उर अंतर निरंतर अनंत दर्व.
भाव भासि रहे पै सुभाव न टरतु है। निर्मलसौं निर्मल सु जीवन प्रगट जाके,
घटमैं अघट-रस कौतुक करतु है।। जामै मति श्रुति औधि मनपर्यै केवल सु,
पंचधा तरंगनि उमंगि उछरतु है। सो है ग्यान उदधि उदार महिमा अपार , निराधार एकमैं अनेकता धरतु है।।२०।।
(१२-२०-१४०)
જ્ઞાનરહિત ક્રિયાથી મોક્ષ થતો નથી. (સવૈયા એકત્રીસા) कोइ क्रूर कष्ट सहैं तपसौं सरीर दहैं,
धूम्रपान करें अधोमुख हेकै झूले हैं। केई महाव्रत गहैं क्रियामैं मगन रहैं,
वहैं मुनिभार पै पयारकैसे पूले हैं।। इत्यादिक जीवनकौं सर्वथा मुकति नाहि,
फिरै जगमांहि ज्यौं वयारिके बघूले हैं। जिन्हके हियमैं ग्यान तिन्हिहीको निरवान, करमके करतार भरममैं भूले हैं।।२१।।
(सश-२१-१४१)
व्य१२वीनता- ५२म. (Easu) लीन भयौ विवहारमैं , उकति न उपजै कोइ। दीन भयौ प्रभुपद जपै, मुकति कहासौं कोइ ?।।२२।।
(लश-२२-१४२)