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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है अध्यवसान से अपने को पापरूप करता है; और इसी प्रकार जानने में आता हुआ जो धर्म (धर्मास्तिकाय) है उसके अध्यवसान से अपने को धर्मरूप करता है, जानने में आते हुये अधर्म (अधर्मास्तिकाय से) अध्यवसान से अपने को अधर्मरूप करता है, जानने में आते हुये अन्य जीव के अध्यवसानों से अपने को अन्य जीवरूप करता है, जानने में आते हुये पुद्गल के अध्यवसानों से अपने को पुद्गलरूप करता है, जानने में आते हुये लोकाकाश के अध्यवसान से अपने को लोकाकाशरूप करता है और जानने में आते हुये अलोकाकाश के अध्यवसान से अपने को अलोकाकाशरूप करता है। (इस प्रकार आत्मा अध्यवसान से अपने को सर्वरूप करता है।)।।११४ ।। (श्री समयसार जी गाथा २६८-२६९ की टीका) * और यह ‘धर्मद्रव्य ज्ञात होता है' इत्यादि जो अध्यवसान है उस अध्यवसान वाले जीव को भी, ज्ञानमयपने के सद्भाव से सत्प अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक रूप है ऐसे आत्मा का और ज्ञेयमय धर्मादिक रूपों का विशेष न जानने के कारण भिन्न आत्मा का अज्ञान होने से वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान हैं भिन्न आत्मा का अदर्शन होने से (वह अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्मा का अनाचरण होने से ( वह अध्यवसान) अचारित्र है। इसलिये यह समस्त अध्यवसान बन्ध के ही निमित्त हैं।।११५ ।। ( श्री समयसार जी गाथा-२७० की टीका में से) * इस जगत में चेतयिता है (चेतने वाला अर्थात् आत्मा है) वह ज्ञानगुण से परिपूर्ण स्वभाव वाला द्रव्य है। पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहार से उस चेतयिता का (आत्मा का) ज्ञेय ( –ज्ञात होने योग्य) है। अब, 'ज्ञायक ( –जानने वाला) चेतयिता ज्ञेय जो पुद्गलादि परद्रव्य उनका है या नहीं ?'-इस प्रकार यहाँ उन दोनों के तात्त्विक सम्बन्ध का विचार ५४ * मैं पर को जानता हूँ इसमें आत्मा का नाश हो गया Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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