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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है दशा होने पर उस सम्यग्दृष्टि जीव के कोई ऐसी अनिर्वचनीय शक्ति प्रगट होती है कि जिसकी सामर्थ्य से यह अनिर्वचनीय स्वात्म को प्रत्यक्ष कर लेता है अर्थात् सम्यग्दर्शन होने से मिथ्यात्व के अभाव के साथ-साथ ही स्वानुभूत्यावरण कर्म का क्षयोपशम होता है तब आत्मा की निज सामर्थ्य से आत्मा प्रत्यक्ष होता है इसलिये स्वानुभूति के समय में मति-श्रुतज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। अन्वयार्थ:- इसका खुलासा इस प्रकार है कि इस शुद्ध स्वानुभूति के समय में स्पर्शन, रसना , घ्राण, चक्षु और श्रोत्र यह पाँचों इन्द्रियाँ उपयोगी नहीं मानीं परन्तु वहाँ केवल मन ही उपयोग रूप माना गया है तथा निश्चय से निज के अर्थ की अपेक्षा से नोइन्द्रिय ही दूसरा नाम है जिसका ऐसा मन, द्रव्यमन और भावमन इस तरह दो प्रकार का है। भावार्थ :- पूर्वोक्त कथन का खुलासा इस प्रकार है कि जिस समय सम्यग्दृष्टि स्वानुभूति करता है उस समय उसको पाँचों इन्द्रियों का उपयोग नहीं होता परन्तु केवल एक मन का ही उपयोग होता है, तथा यह मन, द्रव्यमन एवं भावमन इस प्रकार दो प्रकार का मानने में आया है। सारांश यह है कि स्वानुभूति के समय में इन्द्रियजन्य ज्ञान नहीं होता है।।८५।। (श्री पंचाध्यायी, पूर्वार्ध गाथा ७१०-७११–७१२) * अन्वयार्थ :- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र यह पाँचों इन्द्रियाँ एक मूर्तिक पदार्थों के जानने वाली है तथा मन, मूर्तिक तथा अमूर्तिक दोनों पदार्थों को जानने वाला है। अन्वयार्थ :- इसलिये यह कथन निर्दोष है कि-स्वात्मग्रहण में निश्चय से मन ही उपयोगी है परन्तु इतना विशेष है कि विशिष्ट दशा में यह मन स्वयं ही ज्ञानरूप हो जाता है। ३८ * पर ज्ञेय के लक्ष से इन्द्रियज्ञान प्रगट होता है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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