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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है * ( स्वानुभूत्या चकासते ) अपनी ही अनुभवनरूप - क्रिया से प्रकाश करता है, अर्थात् अपने को अपने से ही जानता है- प्रगट करता है। इस विशेषण से, आत्मा को तथा ज्ञान को सर्वथा परोक्ष ही मानने वालेजैमिनीय-भट्ट-प्रभाकर के भेद वाले मीमांसकों के मत का खण्डन हो गया। तथा ज्ञान अन्य ज्ञान से जाना जा सकता है - स्वयं अपने को नहीं जानता, ऐसा मानने वाले नैयायिकों का भी प्रतिषेध हो गया।।५७।। ( श्री समयसार जी, कलश १, श्लोकार्थ में से) * और जैसे दाह्य ( - जलने योग्य पदार्थ ) के आकार होने से अग्नि को दहन कहते हैं तथापि उसके दाह्यकृत अशुद्धता नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञेयाकर होने से उस 'भाव' के ज्ञायकता प्रसिद्ध है, तथापि उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है; क्योंकि ज्ञेयकार अवस्था में जो ज्ञायक रूप से ज्ञात हुआ वह स्वरूप प्रकाशन की ( स्वरूप को जानने की ) अवस्था में भी दीपक की भांति, कर्त्ताकर्म का अनन्यत्व (एकता) होने से ज्ञायक ही है स्वयं जानने वाला है इसलिए स्वयं कर्त्ता और अपने को जाना इसलिए स्वयं की कर्म है। (जैसे दीपक घटपटादि को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक है, और अपने को-अपनी ज्योति-रूप शिखा को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक ही है, अन्य कुछ नहीं; उसी प्रकार ज्ञायक का समझना चाहिए ) । । ५८ ।। (श्री समयसार जी, गाथा ६ टीका, दूसरा पैराग्राफ, श्री अमृतचंद्राचार्य ) " ज्ञायक ऐसा नाम भी उसे ज्ञेय को जानने से दिया जाता है; क्योंकि ज्ञेय का प्रतिबिम्ब जब झलकता है तब ज्ञान में वैसा ही अनुभव होता है। तथापि उसे ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है, क्योंकि जैसा ज्ञेय ज्ञान में प्रतिभासित हुआ वैसा ज्ञायक का ही अनुभव करने पर ज्ञायक ही है। 'यह २४ 66 'इन्द्रियज्ञान ज्ञेय बदलता रहता है* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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