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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है * अस्ति ज्ञानं यथा सौख्यमैन्द्रियं चाप्यतीन्द्रियम्। आद्यं द्वयमनादेयं समादेयं परं द्वयम्।।२७७।। जैसे ज्ञान इन्द्रियजन्य और अतीन्द्रिय होता है, वैसे ही सुख भी इन्द्रियजन्य तथा अतीन्द्रिय होता है। उनमें से सम्यक् दृष्टि को पहले के दोनों अर्थात् इन्द्रियजन्य ज्ञान तथा इन्द्रियजन्य सुख उपादेय नहीं होते हैं किन्तु शेष के दोनों अर्थात् इन्द्रियजन्य सुख उपादेय होते हैं।।३९ ।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध , गाथा २७७) * इन्द्रियजन्य ज्ञान में दोष : नूनं यत्परतो ज्ञानं प्रत्यर्थ परिणामियत्। व्याकुलं मोहसंपृक्तमर्थाद् दुःखमनर्थवत्।।२७८ ।। निश्चय से जो ज्ञान इन्द्रियादि के अवलम्बन से होता है, और जो ज्ञान प्रत्येक अर्थ के प्रतिपरिणमनशील रहता है अर्थात् प्रत्येक अर्थ के अनुसार परिणामी होता है। वह ज्ञान व्याकुल और मोहमयी ( मोह सहित) होता है। इसलिए वास्तव में वह दुःखरूप तथा निष्प्रयोजन के समान है।।४।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा २७८) * इन्द्रिय ज्ञान, परालंबी और प्रत्येक ज्ञेय अनुसार परिणमनशील होने से व्याकुल तथा मोह के सम्पर्क से सहित होता है। इसलिए वास्तव में वह इन्द्रियज्ञान दुःखरूप है। अतः वह कार्यकारी नहीं है।।१।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा २७८ का भावार्थ) * परनिमित्त से होने के कारण ज्ञान में (इन्द्रिय ज्ञान में ) व्याकुलता पायी जाती है इसलिए ऐसे इन्द्रियजन्य ज्ञान में दुःखपना अच्छी तरह से सिद्ध होता है। क्योंकि जाने हुए पदार्थ अंश के सिवाय बाकी के ज्ञेय अंशों के १९ * मैं ज्ञायक ही हूँ और मुझे ज्ञायक ही जानने में आ रहा है" Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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