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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है जाननेवाला मैं हूँ; परन्तु मैं ज्ञानस्वरूप हूँ-इस प्रकार स्वयं को परद्रव्य से भिन्न केवल चैतन्य द्रव्य अनुभव नहीं करता। इसलिये आत्मज्ञान शून्य आगमज्ञान भी कार्यकारी नहीं है। इस प्रकार यह सम्यग्ज्ञान के अर्थ जैन शास्त्रों का अभ्यास करता है, तथापि इसके सम्यग्ज्ञान नहीं है।।१०।। (श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, सातवां अधिकार पृष्ठ २३७) * तथा जो ज्ञान पाँच इन्द्रियों व छठवें मन के द्वारा प्रवर्तता था, वह ज्ञान सब ओर से सिमटकर इस निर्विकल्प अनुभव में केवल स्वरूपसन्मुख हुआ। क्योंकि वह ज्ञान क्षयोपशमरूप है। इसलिये एक काल मैं एक ज्ञेय ही को जानता है, वह ज्ञानस्वरूप जानने को प्रवर्तित हुआ तब अन्य का जानना सहज ही रह गया। वहाँ ऐसी दशा हुई कि बाह्य अनेक शब्दादिक विकार हों तो भी स्वरूप ध्यानी को कुछ खबर नहीं-इस प्रकार मतिज्ञान भी स्वरूपसन्मुख हुआ। तथा नयादिक के विचार मिटने पर श्रुतज्ञान भी स्वरूपसन्मुख हुआ। ऐसा वर्णन समयसार की टीका आत्मख्याति में जै तथा आत्मावलोकनादि में है। इसलिये निर्विकल्प अनुभव को अतीन्द्रिय कहते हैं। क्योंकि इन्द्रियों का धर्म तो यह है कि स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्दों को जानें, वह यहाँ नहीं है; और मन का धर्म यह है कि अनेक विकल्प करे, वह भी यहाँ नहीं है; इसलिये यद्यपि जो ज्ञान इन्द्रिय-मन में प्रवर्तता था वही ज्ञान अब अनुभव में प्रवर्तता है तथापि इस ज्ञान को अतीन्द्रिय कहते हैं।।११।। (श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक , रहस्यपूर्ण चिट्ठी, पृष्ठ ३४३) * परन्तु विशेष इतना कि ( ये सर्व आत्मा में ) किसी प्रकार का ज्ञान ऐसा नहीं होता कि परसतावलंवनशील होकर मोक्षमार्ग साक्षात् कहे, क्योंकि अवस्था (दशा) के प्रमाण में परसत्तावलंबक है ( परंतु उसको वह मोक्षमार्ग नहीं कहता) वह आत्मा परसत्तावलंबी ज्ञान को परमार्थता नहीं कहता। *इन्द्रियज्ञान बढ़ा अर्थात् ज्ञेय बढ़ा Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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