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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है है। तो कैसा है ? ऐसा हैं - ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्र: ज्ञेयः (ज्ञान) जानपनारूप शक्ति (ज्ञेय) जानने योग्य शक्ति (ज्ञात) अनेक शक्ति विराजमान वस्तु मात्र ऐसे तीन भेद (मद्वस्तुमात्रः) मेरा स्वरूप मात्र है (ज्ञेयः) ऐसा ज्ञेयरूप हूँ। भावार्थ इस प्रकार है कि मैं अपने स्वरूप को वेद्य-वेदकरूप से जानता हूँ, इसलिए मेरा नाम ज्ञान, यतः मैं आप द्वारा जानने योग्य हूँ, इसलिए मेरा नाम ज्ञेय, यतः ऐसी दो शक्तियों से लेकर अनन्त शक्तिरूप हूँ, इसलिए मेरा नाम ज्ञाता। ऐसा नामभेद है, वस्तुभेद नहीं है। कैसा हूँ ? “ज्ञानज्ञेयकल्लोलवल्गन्” (ज्ञान) जीव ज्ञायक है (ज्ञेय) जीव ज्ञेयरूप है ऐसा जो (कल्लोल) वचनभेद उससे ( वल्गन्) भेद को प्राप्त होता हूँ। भावार्थ इस प्रकार है कि वचन का भेद है, वस्तु का भेद नहीं है।।२।। (पांडे राजमल जी , श्री समयसार कलश टीका, कलश-२७१) * वैषयिक ज्ञान सर्व पौद्गलिक है ज्ञानं वैषयिकं पुंसः सर्व पौद्गलिकं मतम्। विषयेभ्यः परावृत्तमात्मीयमपरं पुनः।।७६ ।। जीव को जितना वैषयिक (इन्द्रियजनित) ज्ञान है वह सब पौद्गलिक मानने में आया है और दूसरा जो ज्ञान विषयों से परावृत है - इन्द्रियों की सहायता से रहित है वह सब आत्मीय है ।।३।। ( श्री अमितगतिआचार्य, योगसार प्राभृत चूलिकाअधिकार गाथा-७६) * इस आत्मा को अनादि से इन्द्रिय ज्ञान हैं; उससे स्वयं अमूर्तिक है वह तो भासित नहीं होता, परन्तु शरीर मूर्तिक है वही भासित होता है। और आत्मा किसी को आपरूप जानकर अहंबुद्धि धारण करे ही करे, सो जब स्वयं पृथक् भासित नहीं होता तब उनके समुदायरूप पर्याय में ही अहं बुद्धि * मैं पर को जानता हूँ, इसमें आत्मा का नाश हो गया Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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