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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है प्रवृत्ति करता है – इसलिए यह पराधीन है। (३) आकुलता को उत्पन्न करने वाला है। (४) भगवान ने इन्द्रियज्ञान को मूर्तिक कहा है, पौद्गलिक कहा है, हेय कहा है, परज्ञेय कहा है ! अभी एक भ्रांति जीवों को रह जाती है कि थोड़ा शास्त्र स्वाध्याय के बाद ऐसा भासने लगता है कि पहले हमको ज्ञान नहीं था अथवा कम ज्ञान था लेकिन अभी तो (शास्त्र स्वाध्याय के बाद) ज्ञान बढ़ गया है। वास्तव में देखो तो उसे अभी ज्ञान प्रकट ही नहीं हुआ है तो बढ़ने की बात ही कहाँ रही? " ज्ञान" तो उसे कहते हैं कि जो आत्माश्रित होता है, अतीन्द्रिय, अंतर्मुखी होता है कि जिसमें अविनाभावपने आनन्द का स्वाद आता हैं उसे भगवान ज्ञान कहते हैं । जिसमे आनन्द का स्वाद नहीं आता और जिसमें एकांत आकुलता ही होती है वह वास्तव में ज्ञान नहीं परन्तु अज्ञान है। इन्द्रियज्ञान वास्तव में अज्ञान है क्योंकि इसमें आत्मा का अनुभव नहीं होता इसलिए यह अज्ञान है। ऐसी भ्रांति और ज्ञान का मद टल जावे और आत्मलाभ हो जावे - इस हेतु से यह पुस्तक प्रकाशित हुई है। सामान्य लोग पुण्य से धर्म मानते हैं और विद्वतजन शास्त्रज्ञान को ज्ञान मानते हैं। परन्तु शास्त्रज्ञान वो ज्ञान ही नहीं है। पू. गुरुदेव श्री ने श्री समयसार जी गाथा ३९० से ४०४ गाथा के प्रवचन में (प्रवचनरत्नाकर, भाग १०) तो यहाँ तक कहा है कि शास्त्र के लक्ष वाला ज्ञान जड़ और अचेतन है। उसको जड़ और अचेतन कहने का कारण यह है कि उसमें आत्मा जानने में नहीं आता, अनुभव में नहीं आता इसलिए जैसे राग में Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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