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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है ___ मोह, इन्द्रियज्ञान को जीतने से ही जीता जाता है! इन्द्रियज्ञान को जीत लो तो मोह को जीत लोगे - ऐसी जितेन्द्रिय जिन की व्याख्या चतुर्थ गुणस्थान में लागू पड़ती है! इन्द्रियज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न है, कथंचित् भिन्न-अभिन्न नहीं है। परन्तु अतीन्द्रियज्ञान तो आत्मा से कथंचित् भिन्न-अभिन्न है और इन्द्रियज्ञान तो आत्मा से सर्वथा भिन्न है। क्योंकि इन्द्रियज्ञान ज्ञेयतत्त्व है, ज्ञानतत्त्व नहीं है! यदि इन्द्रियज्ञान, ज्ञान होवे तो उसमें आत्मा का अनुभव होना चाहिए परन्तु उसमें आत्मा का अनुभव नहीं होता इसलिए वह ज्ञान नहीं है; परन्तु परज्ञेय है और आत्मा से सर्वथा भिन्न है! श्री प्रवचनसार जी गाथा १७२ में अलिंगग्रहण के २० बोल हैं। उसमें से प्रथम के दो बोल बहुत ही महत्त्व के हैं! (१) यह आत्मा इन्द्रियज्ञान के द्वारा पर को जानता ही नहीं है - ऐसा करने से इसे अतीन्द्रिय - ज्ञानमयी आत्मा की उपलब्धि अर्थात् प्राप्ति होती है - ऐसा इसका एक अर्थ है। (२) इन्द्रियज्ञान के द्वारा आत्मा जानने में नहीं आता है। इस प्रकार इन्द्रियज्ञान के द्वारा आत्मा जानता नहीं है और इन्द्रियज्ञान के द्वारा आत्मा जानने में आता भी नहीं है, इसलिए इन्द्रियज्ञान हेय है। ____ अभी, जब तक इन्द्रियज्ञान में उपादेय बुद्धि है तब तक कर्ता बुद्धि है। यदि इन्द्रियज्ञान के साथ एकता है तो सम्पूर्ण विश्व के साथ एकता है। क्योंकि इन्द्रियज्ञान का विषय सम्पूर्ण विश्व है। पाँच इन्द्रिय और छट्ठा मन कि जो धर्म , अधर्म , आकाश और काल द्रव्य को भी ग्रहण करता है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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