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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है देखो, अपनी पर्याय में जो विशेषता ज्ञात होती है वो अपनी पर्याय ही जानने में आती है, पर नहीं; इसलिए पर को जानने वाली चक्षु को बंद करके-ऐसा नहीं कहा परन्तु अपनी पर्याय को जानने वाली पर्यायार्थिक चक्षु सर्वथा बंद करके-ऐसा कहा।।३८७।। __ (श्री अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय, पृष्ठ १३८, पैराग्राफ ४) * यहाँ तो कहते हैं कि भगवान! तू पर को जानता ही नहीं है भगवान केवली लोकालोक को जानते हैं-ऐसा कहना ये तो असद्भूत व्यवहार है भाई! पर के साथ आत्मा का क्या सम्बन्ध है ? ( कोई सम्बन्ध नहीं है) पर के और स्व के बीच में तो अत्यन्त अभाव का अभेद्य किला खड़ा है। परद्रव्य की पर्याय और स्वद्रव्य की पर्याय के बीच अत्यन्त अभाव रूप अभेद्य किला पड़ा है। अपनी एक समय की जो पर्याय है उसमें पर का प्रवेश कहाँ है ? (नहीं है) यहाँ टीका में तो ऐसा लिया है कि आत्मा अपने विशेष को जानता है। पहले सामान्य को जानता है ऐसा कहकर बाद में विशेष को जानता है-ऐसा कहा है; (परन्तु) पर को जानता है-यह बात तो यहाँ ली ही नहीं है।।३८८।। (श्री अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय, पृष्ठ १३९, पैराग्राफ १) * अहाहा...! भगवान! तू सामान्य-विशेष स्वरूप है। वहाँ तेरे विशेष में पर का जानना ये कुछ है ही नहीं है। क्योंकि वहाँ तो ये अपनी पर्याय ही जानने में आती है।।३८९ ।। (श्री अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय, पृष्ठ १३९, पैराग्राफ ३) * जहाँ पर्याय को देखना सर्वथा बंद किया वहाँ द्रव्य को देखने वाला ज्ञान प्रकट हो गया है-ऐसा कहते हैं। क्योंकि स्वयं जाननहार है ने ? जाननहार की पर्याय में अन्धेरा हो जाय अर्थात् जानने का ही बंद हो १९८ *यदि ज्ञान का स्वभाव पर को जानने का होवे तो उसमें आनन्द होना चाहिये Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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