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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है इस प्रकार ज्ञान वास्तव में ज्ञान को ही सम्पूर्ण जान रहा है।।३७०।। (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-३, गाथा ४४, पृष्ठ २०, पैराग्राफ ३) * केवलज्ञान लोकालोक को जानता है ऐसा कहना यह तो असद्भूत व्यवहारनय का विषय है। वास्तव में तो अपनी पर्याय को ही जानते हैं। श्री समयसार कलश टीका कलश २७१ में आता है कि-' मैं ज्ञायक और समस्त छह द्रव्य मेरा ज्ञेय' ऐसा तो नहीं है। तो कैसा है ? कि ज्ञाता स्वयं, ज्ञान स्वयं और ज्ञेय स्वयं ही है। यहाँ कहते हैं कि शब्द का ज्ञान शब्द के कारण नहीं हुआ है। शब्द की पर्याय का ज्ञान आत्मा में अपने कारण से हुआ है। और जो यह शब्द की पर्याय है वह आत्मा से होती है ऐसा नहीं है। क्योंकि आत्मा पुद्गल द्रव्य से भिन्न है। इस प्रकार शब्द की पर्याय ज्ञायक स्वभावी आत्मा में विद्यमान नहीं है। इसलिए आत्मा अशब्द है। अहो! क्या गजब भेदज्ञान की बात है।।३७१।। (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-३, गाथा ४९, पृष्ठ ६५, पैराग्राफ ४) * 'शब्द का ज्ञान' यह तो निमित्त से कहा है। वास्तव में तो यह ज्ञान का ज्ञान है; लेकिन यह ज्ञान शब्द सम्बन्धी का है इतना बताने के लिए शब्द का ज्ञान' ऐसा कहा है। शब्द वह तो ज्ञेय है और शुद्ध आत्मा ज्ञायक है।।३७२।। (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-३, गाथा ४९, पृष्ठ ६६, पैराग्राफ ५) * यह स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब परिवार, धंधा व्यापार इत्यादि ज्ञान में दिखते हैं ने ? कहते हैं कि वे ज्ञानस्वरूप में नहीं हैं। वास्तव में तो वे पदार्थ नहीं, अपितु उस समय उसकी अपनी ज्ञान की पर्याय जानने में आती है। परन्तु ये मानता है कि मुझे ये ( पर) पदार्थ जानने में आते हैं। 'उसी समय यह मेरा ज्ञान जानने में आता है'-ऐसा माने तो ज्ञान की पर्याय द्रव्य के * इन्द्रियज्ञान अरूपी ऐसी आत्मा को जानता नहीं है? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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