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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है है। रागादि परवस्तु-परद्रव्यों को उसका ज्ञेय कहना यह व्यवहार से है, निश्चय से पर के साथ उसको ( मुझको) ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध भी नहीं है। तो फिर पर के साथ मुझे अपनेपने का-स्वामित्व का और कर्तापने का सम्बन्ध होने की बात तो बहुत ही दूर रह गई। समझ में आया कुछ...? अहाहा...! कहते हैं-जो यह ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ, वह ज्ञेयों का ज्ञानमात्र ही नहीं जानना। तब किस प्रकार है ? वह कहते हैं- 'ज्ञेयज्ञान-कल्लोलवल्गन्' (वरन् ) ज्ञेयों के आकार से होने वाले ज्ञान की कल्लोलों के रूप में (तरंगरूप में) परिणमता हुआ वह, 'ज्ञान-ज्ञेयज्ञातृमत्-वस्तुमात्र: ज्ञेयः' ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना। ( अर्थात् स्वयं ही ज्ञान, स्वयं ही ज्ञेय और स्वयं ही ज्ञाता-ऐसा ज्ञानज्ञेय-ज्ञातारूप तीन भावोंसहित वस्तुमात्र जानना।) 'ज्ञेयों के आकार से होने वाले ज्ञान की कल्लोलों के रूप में परिणमता हुआ'-यह व्यवहार से कहा है, वास्तव में तो ज्ञेयों का-छह द्रव्यों का जैसा स्वरूप है, उसको जानने के विशेषरूप परिणमना वह ज्ञान की अपनी दशा है। और वह (दशा) ज्ञान के स्वयं के सामर्थ्य से है। 'ज्ञेयों के आकाररूप होता हुआ ज्ञान' यह तो कथनमात्र है। सचमुच ज्ञान ज्ञानाकार ही है। ज्ञेयाकार है ही नहीं। समझ में आया कुछ...? अहाहा...! यहाँ कहते हैंयह ज्ञान की पर्याय और मेरा द्रव्य-गुण (द्रव्य-गुण-पर्याय) तीनों मिलकर मैं ज्ञेय हूँ। ज्ञान मैं ज्ञाता मैं और ज्ञेय यह लोकालोक ऐसा किसने कहा ? परमार्थ से ऐसा तो हैं नहीं, (फिर भी) ऐसा कहना यह तो व्यवहार है। अहाहा...! धर्मी के अन्तर की खुमारी तो देखो! कहते है- जगत में मैं एक ही हूँ। जगत में दूसरी चीज हो तो हो, परमार्थ से उसके साथ मेरा जानने तक का सम्बन्ध नहीं है। ऐसी बात है, समझ में आया कुछ...? १६४ *जानने के लोभ में सारा संसार है* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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