SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है समयसार कलश : २७१ 'ज्ञानमात्रभाव स्वयं ही ज्ञान है, स्वयं ही अपना ज्ञेय है और स्वयं ही अपना ज्ञाता है'-ऐसे अर्थरूप काव्य कहते हैं। योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव। ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलवल्गन् ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रः ।।२७१।। श्लोकार्थ :-[ यः अयं ज्ञानमात्र: भावः अहम् अस्मि सः ज्ञेयज्ञानमात्र: एव न ज्ञेयः] जो यह ज्ञानमात्र भाव में हूँ, वह ज्ञेयों का ज्ञानमात्र ही नहीं जानना चाहिए (ज्ञेय-ज्ञानकल्लोल-वल्गन्) (परन्तु ) ज्ञेयों के आकार से होने वाले ज्ञान की कल्लोलों के रूप में परिणमित होता हुआ वह, (ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातृमत्-वस्तुमात्र: ज्ञेयः) ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना चाहिए। (अर्थात स्वयं ही ज्ञान, स्वयं ही ज्ञेय और स्वयं ही ज्ञाता)-इस प्रकार ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातारूप तीनों भावसहित वस्तुमात्र जानना चाहिए। भावार्थ :- ज्ञानमात्रभाव जाननक्रियारूप होने से ज्ञानस्वरूप है। और वह स्वयं ही निम्न प्रकार से ज्ञेयरूप है। बाह्य ज्ञेय ज्ञान से भिन्न हैं, वे ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होते; ज्ञेयों के आकार की झलक ज्ञान में पड़ने पर ज्ञान ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है, परन्तु वे ज्ञान की ही तरंगे हैं। वे ज्ञानतरंगे ही ज्ञान के द्वारा ज्ञात होती है-इस प्रकार स्वयं ही स्वतः जनाने योग्य होने से ज्ञानमात्रभाव ही १६२ *इन्द्रियज्ञान में भेदज्ञान करने की ताकत नही है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy