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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है निश्चय हो जाएगा वो बात कहाँ रही प्रभु ? लो, ऐसा अर्थ! लेकिन ऐसा अर्थ कैसे निकालें ? बापू! तू व्यापार में जमा-नाम का अर्थ कैसे निकालता है ? उसकी रुचि है न? इसलिये वहाँ तो एकदम कह देता है कि इसके पास इतना और इसके पास इतना ( लेने का) बाकी है। उसमें आदत हो गई है। दूसरे गाँव में उधारी वसूल करने जाय और पचास हजार या लाख रुपया ले आय तो हर्ष करता है और मानता है कि मैं इतना पैसा ले आया। परन्तु बापू! ये पैसा तेरा कहाँ है ? और क्या तू इसे ला सकता है ? लाना तो दूर रहा यहाँ तो कहते हैं कि ये पैसा आया वह मेरा ज्ञेय है और मैं ज्ञायक-ऐसा भी नहीं है। अहाहा! जानने वाली पर्याय मेरी है इसलिये मैं ही ज्ञेय हूँ, मैं ही ज्ञान हूँ और मैं ही ज्ञायक हूँ, ज्ञायक ऐसे मुझमें पर का ज्ञेयपना है ही नहीं। तत्व दृष्टि बहुत सूक्ष्म है भाई! अरे! अनन्तकाल से इसने पर कानिमित्त का, राग का और पर्याय का अभ्यास किया है, इन्हें अपना ज्ञेय माना है, परन्तु ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय सभी मैं एक हूँ-ऐसा अंतर्मुख होकर अभेद का अभ्यास नहीं किया। परन्तु बापू! जन्म-मरण से रहित होने की चीज तो अन्त: पुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है। यह शास्त्र है सो ज्ञेय है और उसको जानने वाला मैं यह ज्ञायक हूँ यहाँ कहते हैं ऐसा वस्तुस्वरूप नहीं है; क्योंकि मेरी ज्ञान पर्याय में जैसा शास्त्र है वैसा ही ज्ञान हुआ है, तो भी वह ज्ञान, ज्ञेय के-शास्त्र के कारण नहीं हुआ परन्तु मेरी ज्ञान की पर्याय स्वयं स्वतः निज सामर्थ्य से ही उस रूप-जाननेरूप परिणमित हुई है। उसे पर से-शास्त्र से क्या सम्बन्ध है ? उसे पर के साथ ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध भी नहीं है। (तो फिर शास्त्र से ज्ञान हुआ यह बात तो कितनी दूर ही रही)। १५० * इन्द्रियज्ञान में आकुलता है, अतीन्द्रिय ज्ञान में निराकुल आनन्द है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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