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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है ज्ञान मानता है।।३१९ ।। (ज्ञानगोष्ठी, प्रश्न २९९, आत्मधर्म अंक ४२४ , ___ फरवरी १९७९, पृष्ठ २२, २९) * प्रश्न : क्या खण्ड-खण्ड ज्ञान-इन्द्रियज्ञान भी संयोग रूप है ? उत्तर : हाँ वास्तव में तो खण्ड-खण्ड ज्ञान भी त्रिकाली स्वभाव की अपेक्षा से संयोग रूप है। जैसे इन्द्रियाँ संयोग रूप हैं, वैसे वह भी संयोग रूप है। जिस प्रकार शरीर ज्ञायक से अत्यन्त भिन्न है-उसी प्रकार खण्ड-खण्ड ज्ञान-इन्द्रियज्ञान भी ज्ञायक से भिन्न है, संयोग रूप है; स्वभाव रूप नहीं है।।३२० ।। ( ज्ञानगोष्ठी, प्रश्न ३०२, आत्मधर्म हिन्दी, अक्टूबर १९७८, पृष्ठ २४) * अब कहते हैं कि 'और जो ज्ञायकपने जानने में आया, वो तो वो ही है' अर्थात् जाननहार जानने में आया वह जानने की पर्याय अपनी है। जाननहार जो वस्तु जानने में आयी है, वह पर्याय अपनी है अर्थात् वह पर्याय अपना कार्य है और आत्मा उसका कर्ता है। अहा! 'जानने वाला' ऐसी ध्वनि है न ? अर्थात् वह जानने वाला है इसलिये मानो वह पर को जानता हो ( ऐसा उसको लगता है) क्योंकि जानने वाला कहा है न ? ३२१।। ('ज्ञायक भाव' गुजराती में से पृष्ठ १०) * प्रश्न : लेकिन जानने वाला है इसलिये पर को जानता है न ? उत्तर : ना, परन्तु यह तो पर सम्बन्धी का ज्ञान अपने से अपने में स्व-परप्रकाशक होता है, वह पर्याय ज्ञायक की है। अहा! वह ज्ञायकपने रहा है। इसलिये ज्ञायक को जानने वाली पर्याय वह उसका कार्य है। १४१ * सम्यग्ज्ञान का लक्षण-परलक्ष अभावात्* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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