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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है जानने में आती है। उसने भावेन्द्रिय को जीता ऐसा कहने में आता है। उसको सम्यग्दर्शन अथात् सत्यदर्शन कहने में आता है।।३१०।। (गुजराती श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, पृष्ठ १२६ ) * द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय और उसके विषय वे तीनों जानने में आने लायक हैं और ज्ञायक आत्मा स्वयं जानने वाला है। वे तीनों परज्ञेय तरीके और भगवान आत्मा स्वज्ञेय तरीके जानने लायक है। चाहे तो भगवान तीन लोक के नाथ हों, उनकी वाणी हो या उनका समोशरण-वह सब अतीन्द्रिय आत्मा की अपेक्षा से इन्द्रिय हैं। परज्ञेय तरीके जानने में आने लायक हैं। और आत्मा ग्राहक जाननेवाला हैं। ऐसा होने पर भी ग्राहयग्राहक लक्षण वाले सम्बन्ध की निकटता के कारण वाणी से ज्ञान होता है ऐसा-अज्ञानी (भ्रम से) मानता है। ज्ञेयाकाररूप जो ज्ञान की पर्याय होती है वह ज्ञान का परिणमन है, ज्ञेय का नहीं, ज्ञेय के कारण से भी नहीं, तो भी ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध की अति निकटता है इसलिए ज्ञेय से ज्ञान आया, ज्ञेय के सम्बन्ध से ज्ञान हुआ ऐसा अज्ञानी ( भ्रम से) मानता है। पहले ज्ञान कम था और शास्त्र सुनने पर नया ( ज्यादा ) ज्ञान हुआ इसलिए सुनने से ज्ञान हुआ ऐसा अज्ञानी को लगता है। जैसा शास्त्र होता है, वैसा ज्ञान होता है, तब अज्ञानी ऐसा मानता है कि शास्त्र से ज्ञान हुआ। ज्ञेय-ज्ञायक का अति निकट सम्बन्ध होने से परस्पर ज्ञेय ज्ञायकरूप और ज्ञायक ज्ञेयरूप ऐसा दोनों एकरूप हों, ऐसा उसको भ्रम होता है। वास्तव में ऐसा नहीं है, तो भी ऐसी मान्यता वह अज्ञान है। जैसी वाणी हो उसी प्रकार का जो ज्ञान होता है वह अपने कारण से होता है, वाणी के कारण से नहीं। परसत्तावलंबी ज्ञान भी पर से हुआ है, ऐसा मानना अज्ञान है। ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध की निकटता के कारण अज्ञानी को ज्ञान और ज्ञेय परस्पर एक हो गये हो ऐसा दिखता है। परन्तु एक हुए नहीं हैं। १३६ *इन्द्रियज्ञान ज्ञेय का क्षयोपशम है Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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