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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है ज्ञानस्वभाव है। अपना स्वपर-प्रकाशक स्वभाव होने से अपने को जानने पर वो सब सहज जानने में आ जाता है। परन्तु अकेले पर को ही जानना वो मिथ्याज्ञान है। स्वभाव में तन्मय होकर अपने को जानते ही पर जानने में आ जाता है उसको व्यवहार कहते हैं। इसका नाम सम्यग्ज्ञान है।।३०३।। (श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग-५, पृष्ठ ३५१) * यहाँ तो स्वद्रव्य को-आत्मा को जानने की बात है। इसलिये कहते हैं-इन्द्रिय और मन द्वारा प्रवर्तने वाली जो बुद्धि अर्थात् ज्ञान की अवस्थाएँ-उन सबको मर्यादा मे लाकर मतिज्ञानतत्व को आत्मसन्मुख करने पर आत्मा प्रसिद्ध होता है। इन्द्रिय और मन द्वारा प्रवतते हुए ज्ञान का जो पर सन्मुख झुकाव है उसको वहाँ से समेटकर स्वसन्मुख करने पर भगवान आत्मा जानने में आता है, अनुभव में आता है।।३०४ ।। (श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग-५, पृष्ठ ३५३ ) * मति ज्ञान के स्वरूप को उसने जाननहार के प्रति झुका दिया है, पर ज्ञेय से हटाकर मति ज्ञान के स्वरूप को ‘स्वज्ञेय' में लगा दिया है ऐसा मार्ग और ऐसी विधि है। बापू! उसको (आत्मा को) जाने बिना यों का यों ही भय पूरा हो जाता है। अरेरे! ऐसा सत्य स्वरूप सुनने को मिले नहीं तो वह बेचारे धर्म कब प्राप्त करेंगे ? बहुत से तो मिथ्यात्व को अति पुष्ट करते हुए सम्प्रदाय में पड़े हैं। अहा क्रियाकांड के राग में वह बेचारे सारा जीवन बर्बाद कर देते हैं।।३०५ ।। (श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग-५, पृष्ठ ३५३ ) * आत्मा ज्ञायक स्वभावी वस्तु है। और यह शरीर परिणाम को प्राप्त जो इन्द्रियाँ हैं वो जड़ हैं। तथा एक-एक विषय को जो खण्डखण्डपने-जानती हैं-वो भावेन्द्रियाँ अर्थात् क्षयोपशम ज्ञान भी वास्तव १३२ * इन्द्रियज्ञान का लक्ष पर के ऊपर होता है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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