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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है विशेषरूप से स्पष्ट होता है। इसलिए आत्मा का यह रूप जो स्वसंवेदन से दिखायी देता है उसको स्वसंवेदन द्वारा ही देखना चाहिए। भावार्थ :- ज्ञानस्वरूप स्वसंवेदन द्वारा ही आत्मस्वरूप को देखना, अन्य कोई उपाय नहीं है। उसके लिए इन्द्रिय और मन का व्यापार बंद करके अर्थात् इन्द्रिय और मन को आत्माधीन करना यही उपाय है।।२८९ ।। (श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक १६७) * स्वसंवित्ति का स्पष्ट अर्थवपुषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातंत्र्येन चकासती। चेतना ज्ञानरूपेयं स्वयम् दृश्यत एव हि।।१६८।। अर्थ :- स्वतंत्रपने चमकती (प्रकाशती) यह ज्ञानरूप चेतना वह शरीर रूप से प्रतिभासित नहीं होती हुई स्वयम् ही देखने में आती है। __ भावार्थ :- संवित्ति, अर्थात् ज्ञानचेतना। वह पर की अपेक्षा नहीं रखती स्वतंत्ररूप से प्रकाशती हुई देखने में आती है। उसमें शरीर का कुछ भी प्रतिभास नहीं होता है।।२९० ।। ( श्री रामसेनाचार्य विरचित श्री तत्वानुशासन श्लोक १६८ ) * समाधि में आत्मा को ज्ञान स्वरूप नहीं अनुभव करने वाला योगी आत्मध्यानी नहीं है। समाधिस्थेन यद्यात्मा बोधात्मा नाऽनुभूयते। तदा न तस्य तद्ध्यानं मूर्छावन्मोह एव सः।।१६९ ।। अर्थ :- समाधि में स्थित योगी यदि आत्मा को ज्ञानस्वरूप अनुभव नहीं करता तो समझना कि उस समय उसको आत्मध्यान नहीं है। परन्तु मूर्छागत मोह मात्र है। यहाँ ध्यानस्तवन की पूवीं गाथा कही है कि १२६ *ज्ञेय की पकड़ कहो या ज्ञेयाकर में अटक-एक ही बात है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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