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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है और स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत्र नामक पाँच इन्द्रियों द्वारा उस-उस इन्द्रिय के योग्य विषय के ग्रहण का अभाव होने से बन्द की हुई इन्द्रियों वाला है, उस महामुमुक्षु परमवीतरागसंयमी को वास्तव में सामायिकव्रत शाश्वत-स्थायी है।।२७०।। (श्री नियमसार जी, कुंदकुंदाचार्य-पद्मप्रभमलधारिदेव, गाथा १२५ टीका) * भावार्थ :- शुद्धनय की दृष्टि से तत्व का स्वरूप विचार करने पर अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य में प्रवेश दिखाई नहीं देता। ज्ञान में अन्य द्रव्य प्रतिभासित होते हैं सो तो यह ज्ञान की स्वच्छता का स्वभाव हैं, कहीं ज्ञान उन्हें स्पर्श नहीं करता अथवा वे ज्ञान को स्पर्श नहीं करते। ऐसा होने पर भी, ज्ञान में अन्य द्रव्यों का प्रतिभास देखकर यह लोग ऐसा मानते हुए ज्ञानस्वरूप से च्युत होते हैं कि 'ज्ञान को परज्ञेयों के साथ परमार्थ सम्बन्ध है'; यह उनका अज्ञान है। उन पर करुणा करके आचार्यदेव कहते हैं कि यह लोग तत्त्व से क्यों च्युत हो रहे हैं।।२७१।। ( श्री समयसार जी, पं. श्री जयचंद्रजी कलश २१५ का भावार्थ) * सकल इन्द्रियसमूह के आलम्बनरहित, अनाकुल, स्वहित में लीन, शुद्ध, निर्वाण के कारण का कारण ( मुक्ति के कारणभूत शुक्लध्यान का कारण), शम-दम-यम का निवासस्थान, मैत्री-दया-दम का मन्दिर (घर)-ऐसा यह श्री चन्द्रकीर्तिमुनि का निरूपम मन (चैतन्यपरिणमन) वंद्य है।।२७२।। (श्री नियमसार जी, पद्मप्रभमलधारिदेव, कलश १०४ ) * टीका :- प्रथम तो इस लोक में भगवन्त सिद्ध ही शुद्धज्ञानमय होने से सर्वतः चक्षु हैं, और शेष सभी जीव मूर्त द्रव्यों में ही उनकी दृष्टि लगने से इन्द्रिय-चक्षु हैं। देव सूक्ष्मत्व विशिष्ट मूर्त द्रव्यों को ग्रहण करते हैं ११७ *ज्ञेय ज्ञेय को जानता है, ज्ञान आत्मा को जानता है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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